साधारण बोलचाल की भाषा में संगीत का अर्थ है- गायन। 'सम्यक् गीतम् इति संगीतम्' अर्थात् ध्यानपूर्वक या एकाग्र होकर गाए गए गीत को संगीत (Music) कहते हैं।
परिभाषा की दृष्टि से संगीत का अर्थ विशद है। इसके अंतर्गत गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाएँ आती हैं। ये तीनों कलाएँ एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे के बिना अधूरी हैं।
'संगीत' शब्द गीत में सम् जोड़ने से बना है। सम् का आशय है- सहित और गीत का अर्थ है- गान; यानी नृत्य और वादन के साथ किया गया गान ही संगीत है। कला की श्रेणी में पाँच ललित कलाएँ आती हैं- संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला। इन ललित कलाओं में संगीत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
संगीत का इतिहास
संगीत की सामाजिक जीवन में उपस्थिति के प्रारंभिक प्रमाण हमें सिंधु घाटी की सभ्यता में मिलते हैं। खुदाई में ऐसी मूर्तियाँ और मुहरें मिली हैं जिनमें ढोल बजाते हुए लोग बनाए गए हैं। कई मूर्तियों में नृत्य की भाव-भंगिमाएँ स्पष्ट देखने को मिलती हैं।
मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त नर्तकी की एक प्रसिद्ध कांस्य मूर्ति, जो कमर पर हाथ रखकर खड़ी है, लगता है नृत्य करने ही जा रही है।
वैदिक युग के ग्रंथ 'ऋग्वेद' में ज़िक्र मिलता है कि आर्यों के मनोरंजन का मुख्य साधन संगीत था। इस युग का ग्रंथ सामवेद को भारतीय संगीत का मूल माना गया है। इस ग्रंथ में देवताओं की स्तुति करते हुए गाए जाने वाले मंत्रों का वर्णन मिलता है। इसके अलावा, रामायण और महाभारत कई ऐसे प्रसंगों का उल्लेख है, जहाँ संगीत की उपस्थिति देखी जा सकती है।
तैत्तिरीय उपनिषद्, शतपथ ब्राह्मण, याज्ञवल्क्य-रत्न प्रदीपिका और नारदीय शिक्षा प्रभूति आदि ग्रंथों में उस समय के संगीत का परिचय मिलता है, लेकिन संगीत की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। इस ग्रंथ में छह अध्यायों में संगीत पर चर्चा की गई है।
इसमें श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, जाति, छंद, राग, लय और तालों का विशद वर्णन मिलता है। इसी तरह का दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मतंग मुनि का बृहद्देशी है। संगीत के अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में नारद कृत नारदीय शिक्षा और संगीत मकरंद है।