गायन को और अधिक कर्णप्रिय बनाने के लिये वाद्य-यंत्रों प्रयोग किया जाता है, इसलिये वाद्य-यंत्रों का इतिहास भी गायन जितना ही पुराना है।
सिंधु घाटी सभ्यता में इतिहासकारों को करतालों का एक जोड़ा मिला है। इसके अलावा, एक ऐसी मृण्मूर्ति मिली है जिसके गले में ढोल लटका हुआ है। हड़प्पाकालीन लिपि के कुछ चिह्न सारंगी और वीणा की भाँति प्रतीत होते हैं।
वैदिक और उत्तर वैदिक काल में गायन और वादन दोनों विधाएँ पर्याप्त रूप में प्रचलित थीं। आर्य, वीणा और बाँसुरी के साथ ढोल, झाँझ और बीन भी बजाते थे।
संगम काल में भी संगीत और नृत्य से मनोरंजन करने के प्रमाण मिले हैं। घुमंतू प्रकार के नर्तकों के दल अपने साथ याल (वीणा), पदलाई (इकहरा ढोल) तथा तारों से बने अन्य वाद्य-यंत्र रखते थे।
गुप्त साम्राज्य के प्रतापी शासक समुद्रगुप्त के सिक्कों में उसे बैठकर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। इस काल में बनी अजंता की गुफाओं में की गई भित्ति चित्रकारी में भी कई महिलाओं को वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
भारतीय संगीत में वर्णित चौंसठ कलाओं में वाद्य-यंत्रों को बजाना एक कला माना गया है। अनेक प्रकार के वाद्यों का निर्माण करने और उनके बजाने का ज्ञान कला है। ध्वनि की उत्पत्ति के आधार पर वाद्यों के मुख्यतया चार भेद हैं।
1. तत्ः जिसमें तार का उपयोग होता है, वे वाद्य तत् कहे जाते हैं, सारंगी, बेला, सरोद आदि।
जैसे- वीणा, तंबूरा।
2. सुषिरः जिसका भीतरी भाग सच्छिद्र (पोला) हो और जिसमें वायु का उपयोग होता हो, उसको सुषिर कहते हैं, जैसे- बाँसुरी, अलगोजा, शहनाई, बैंड, हारमोनियम, शंख आदि।
3. अवनद्धः चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य 'अवनद्ध' कहलाता है, जैसे ढोल, नगाड़ा, तबला, मृदंग, डफ, खंजड़ी आदि।
4. घनः परस्पर आघात से बजाने वाला वाद्य घन कहलाता है, जैसे झाँझ, मंजीरा, करताल आदि।