भारत में रंगमंच की जड़ें अत्यंत प्राचीन एवं गहरी हैं। आदिम या पौराणिक युगों से ही रंगमूलक कार्यकलाप भारतीय जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है।
वैदिकयुगीन यज्ञों से संबंधित कर्मकांडों में नाट्य जैसी स्थितियाँ विद्यमान थीं।
संसार के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक ऋग्वेद में यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इंद्र-अदिति आदि अनेक संवादमूलक सूक्त मिलते हैं।
जो किसी-न-किसी प्रकार के नाटकीय संयोजन का आभास देते हैं। इसलिये वैदिक काल को हम रंगमंच कला का उद्भव काल मान सकते हैं।
अगर पुरातात्त्विक साक्ष्यों की बात की जाए तो शैल गुहाकार स्वरूप में भी संस्कृत रंगमंच के कुछ अवशेष मिले हैं।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में रामगिरि की पहाड़ियों पर स्थित सीतावेंगा एवं जोगीमारा गुफाओं में रंगशालाओं के चित्र मिलने से यह अनुमान लगाया जाता है, कि यहाँ प्राचीन काल में नाटक खेले जाते थे।
फिर भी इन गुफाओं से मिले साक्ष्यों के आधार पर हम इसे संस्कृत का विकसित रंगमंच नहीं मान सकते।