संसाधन से आप क्या समझते हैं? Sansadhan Se Aap Kya Samajhte Hain?
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संसाधन से आप क्या समझते हैं? Sansadhan Se Aap Kya Samajhte Hain?

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संसाधन (Resources) का अर्थ - संसाधन का अर्थ किसी प्रकार के उपयोगी सूचना, पदार्थ या सेवा है।

संसाधन वह स्रोत है, जिससे प्राणिमात्र की आवश्यकताओं की अंशत: या पूर्णतः पूर्ति होती है। इस प्रकार मानव और संसाधन में घनिष्ठ एवं अन्योन्याश्रय सम्बन्ध (Relation) है।

किसी भी संसाधन को तब तक संसाधन नहीं कहा जा सकता है, जब तक वह मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति या कठिनाइयों को दूर करने की उसमें आंशिक या पूर्ण क्षमता नहीं हो।

प्रकृति अथवा पर्यावरण प्रदत्त किसी भी वस्तु (Goods) या पदार्थ (Material) अथवा तत्त्व को तभी संसाधन कहा जाता है, जब वह मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो।

संसाधन पूर्णत: या अंशतः मनुष्य के लिए लाभ पहुँचाने वाला होता है, अर्थात् उसमें मानवीय हित की दृष्टि से उपयोगिता भरी होती है।

डॉ. जिम्मरमैन के अनुसार : “संसाधन से अर्थ किसी उद्देश्य की प्राप्ति करना अर्थात् व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करना है।"

जिम्मरमैन की परिभाषा की दृष्टि से जल, वायु, सूर्य का प्रकाश एवं ताप, मिट्टी, वन, भूमि, कोयला (खनिज पदार्थ) मशीनरी इत्यादि सभी को संसाधन कहा जाता है।

कोयला इसी अर्थ में संसाधन है, क्योंकि उससे मनुष्य अपने उपयोग के लिए ऊर्जा (Energy) प्राप्त करता है, अन्यथा एक प्राकृतिक और रासायनिक वस्तु के रूप के में मनुष्य के लिए उसका कोई महत्व या मूल्य नहीं होता।

आदिम युग के मनुष्यों के लिए कोयला (Coal) सहित अन्य खनिज पदार्थ संसाधन नहीं थे; क्योंकि, उस समय तक मनुष्य उसके उपयोगी और लाभप्रद गुणों से अपरिचित और अनभिज्ञ था।

ज्यों-ज्यों वह एक-एक कर खनिज पदार्थों के उपयोगी और लाभप्रद गुणों से परिचित होता गया, त्यों-त्यों खनिज पदार्थ उसके लिए (प्राकृतिक) संसाधन बनते गये।

इसी कारण संसाधन की दो मुख्य विशेषताएँ मानी गयी हैं -

  1. उसकी प्रथम विशेषता मानव के लिए उसकी उपयोगिता है।

  1. उसकी दूसरी विशेषता, उसमें बौद्धिक, सांस्कृतिक और भौतिक क्षमता का होना है। फलस्वरूप उसका महत्त्व कार्यात्मक (Functional) हो जाता है।


संसाधन के बारे में, बाऊमैन (Bowman) ने एक बड़ी सटीक बात कही है, कि

संसाधन होते नहीं, बनते हैं। (Resources Are Not, They Become) अर्थात् संसाधन को संसाधन, मनुष्य अपने ज्ञान, श्रम और सहयोग से बनाता है।

साधारणत: संसाधन दो प्रकार के होते हैं -

1. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

2. मानवीय संसाधन (Human Resources)


1. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) : प्राकृतिक संसाधन, पर्यावरण के ही अंग हैं। वायुमण्डल (वायु), जलमण्डल (जल) एवं स्थलमण्डल (स्थल भूमि और मिट्टी) पर्यावरण के अंग हैं। इसलिए इन्हें प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है।

इन संसाधनों का विदोहन मनुष्य अपने दैनिक जीवन (Daily Life) की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है।

दूसरे शब्दों में, पर्यावरण द्वारा वस्तुओं और सेवाओं की जाने वाली पूर्ति ही प्राकृतिक संसाधन है।

प्राकृतिक संसाधन के अन्तर्गत ऊर्जा, खनिज, भूमि (मृदा), खाद्यान्न, वन, जल, वायु, वनस्पति एवं पशुओं की गणना होती है।

चूंकि ये सभी पदार्थ पृथ्वी और पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों की उपज है, प्रकृति ही इनकी जननी है, इसलिए इन्हें प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है।

2. मानवीय संसाधन (Human Resources) : इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राकृतिक संसाधन मनुष्य मात्र के लिए अमूल्य हैं, उसकी आवश्यकता की पूर्ति की दृष्टि से अनन्य हैं, लेकिन कोई संसाधन तब तक संसाधन नहीं बनता, जब तक मनुष्य अपनी प्रतिभा और परिश्रम का उपयोग करके उसे संसाधन बना न दे।

इसका अर्थ यह है, कि बिना मानव श्रम के प्राकृतिक संसाधन का कोई मूल्य नहीं होता है। मानव ही अपने वातावरण में परिवर्तन कर उसमें पाये जाने वाले पदार्थ को अपनी आवश्यकता के लिए उपयोग (Use) में लाता है।

कृषि उत्पादन मनुष्य के परिश्रम का ही फल है। खनिज पदार्थ की उपयोगिता के गुणों का अन्वेषण (Invention) और उसका विदोहन भी मानव परिश्रम का प्रतिफल है।

अत: पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने में मानव के विचार, उसके संगठन और श्रम सभी की आवश्यकता होती है।

इस स्थिति पर यह उल्लेख्य है, कि मनुष्य की कल्पना-शक्ति, अन्वेषण क्षमता, जिज्ञासा वृत्ति, बौद्धिक क्षमता, अथक परिश्रमशीलता, रुचि, ज्ञान, राष्ट्रीय एवं सामाजिक संगठन, आर्थिक उन्नति, राजनीतिक स्थायित्व आदि स्वयं एक संसाधन है।

अत: यदि प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण के अंग हैं, तो मानव संसाधन स्वयं मनुष्य के अन्दर निहित उसकी आन्तरिक शक्ति, गुण, कल्पना, विचारधारा, बौद्धिक क्षमता आदि है।

वह इन्हीं के बल पर प्राकृतिक संसाधन को संसाधन बना पाता है, अन्यथा वे प्रकृति एवं पर्यावरण में अनुपयोगी वस्तुओं की तरह निष्क्रिय पड़े रह जाते हैं।

आज भी अनेक ऐसी प्राकृतिक वस्तुएँ हैं जिनकी उपयोगिता को मनुष्य जान नहीं पाया है, इसलिए वह इन्हें संसाधन का अंग अभी तक नहीं बना पाया है।

प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन में मूलभूत अन्तर यही है।

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