गाँधीजी (Gandhiji's) ने फरवरी, 1919 ई. में रौलेट ऐक्ट, जिसने सरकार को बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार(Arrest) करने का अधिकार दे दिया था, के विरोध में सत्याग्रह सभा की स्थापना की।
जिसके सदस्यों ने ऐक्ट का विरोध करने और इस तरह जेल जाने की शपथ ली। यह संघर्ष का नया तरीका था।
इसी बीच 6 अप्रैल, 1919 ई. को जालियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ, जिसकी कौंध में सभ्यता के आवरण में छिपी सारी कुरूपता एवं पाशविकता दिख गयी।
तुर्की के सुल्तान को मुसलमान अपना धार्मिक गुरु या खलीफा मानते थे, और चाहते थे, कि उसे कमजोर न किया जाए, किन्तु ब्रिटेन तथा अन्य मित्र राष्ट्रों ने आटोमन साम्राज्य का बँटवारा कर तुर्की से प्रेस का इलाका ले लिया था।
अतः, मुसलमानों ने खिलाफत आन्दोलन चलाया। गाँधीजी ने खिलाफत आन्दोलन को हिन्दू-मुसलमानों को एक सूत्र में बद्ध करने के अवसर के रूप में उपयोग किया।
इन सारे तत्त्वों को लेकर जून, 1920 ई. में इलाहाबाद में सर्वदलीय सम्मेलन हुआ।
खिलाफत कमेटी ने 31 अगस्त 1920 ई० को असहयोग आन्दोलन शुरू किया। सबसे पहले उसमें गाँधी जी शरीक हुए।
सितम्बर, 1920 ई. को कलकत्ता में काँग्रेस के हुए विशेष अधिवेशन ने सरकार के साथ तब तक असहयोग करने की गाँधीजी की योजना को समर्थन देने का निर्णय किया जब तक पंजाब और खिलाफत सम्बन्धी अन्यायों का निराकरण और स्वराज्य की प्राप्ति नहीं हो जाती।
लोगों से सरकारी शिक्षा संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार करने एवं चरखा काटने के लिए कहा गया। गाँधीजी के आह्वान पर जनता अति उत्साह से आगे आयी। जनता ने गुलामी की मनोवृत्ति को त्यागना शुरू कर दिया।
1921-22 .ई. का सरकारी असहयोग आन्दोलन अभूतपूर्व रहा। छात्रों ने सरकारी शिक्षा संस्थाएँ छोड़ दी और राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश लिया।
वकीलों (Advocate) ने वकालत छोड़ दी। 5 फरवरी 1922 ई० को चौरा-चौरी नामक स्थान पर कुछ भीड़ द्वारा 22 पुलिसजनों की हत्या किये जाने से गाँधीजी ने 12 फरवरी को गुजरात के वारदोली बैठक में आन्दोलन वापस ले लिया।
असफल रहने के बावजूद इस आन्दोलन की उपलब्धि यह थी, कि राष्ट्रीय भावनाएँ एवं आन्दोलन अब सुदूर भागों में भी जनसामान्य तक पहुँच गया था। जनता में अपार आत्मविश्वास पैदा हो गया था, जिसे डिगाया नहीं जा सकता था।