पर्यावरण संरक्षण पर निबंध। Paryavaran Sanrakshan Par Nibandh
जीवन (Life) और पर्यावरण (Environment) का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। समस्त जीवधारियों का जीवन उनके पर्यावरण की ही उपज होता है।
अतः, हमारे तन-मन की रचना, शक्ति, सामर्थ्य और विशेषताएँ उस संपूर्ण पर्यावरण से ही नियंत्रित होती हैं, उसी में वे पनपती हैं, और विकास पाती हैं।
वस्तुतः जीवन और पर्यावरण एक-दूसरे से इतने सम्बद्ध हैं, कि दोनों का सह-अस्तित्व बहुत आवश्यक है।
पर्यावरण हमारा रक्षा कवच (Shield) है, जो प्रकृति से हमें विरासत में मिला है। यह हम सबका पालनहार और जीवनाधार (Life Support) है।
पर्यावरण मूलतः प्रकृति (Nature) की देन है। यह भूमि, वन-पर्वतों, नदी-निर्झरों, मरुस्थली मैदानों, घास के जंगलों, रंग-बिरंगे पशु-पक्षियों, स्वच्छ जल से भरी लहलहाती झीलों और सरोवरों से भरी है।
इस पर बहती शीतल मंद वायु तथा उमड़ते और अमृतधार बरसाते बादल, ये सभी धरती (Earth) पर बसने वाले मनुष्यों के विकास और सुख-समृद्धि के लिए संतुलित पर्यावरण का निर्माण करते हैं।
किन्तु पर्यावरण का यह प्राकृतिक संतुलन (Natural Balance) बड़ी तेजी से बिगड़ता जा रहा है।
आश्चर्य होता है, कि मनुष्य धरती के इन स्रोतों का कितना अंधाधुंध दोहन करता जा रहा है। वह इसके वरदानों का इस प्रकार अविवेकपूर्ण दुरुपयोग (Misuse) कर रहा है, कि सारा प्रकृति-तंत्र गड़बड़ा गया है।
अब वह दिन दूर नहीं लगता जब धरती पर हजारों शताब्दियों पुराना हिमयुग (Ice Age) लौट आए अथवा ध्रुवों पर जमी बर्फ की मोटी पर्त पिघल जाने से समुद्र की प्रलयंकारी लहरें नगरों, वन-पर्वतों और जीव-जन्तुओं को निगल जाएँ।
निश्चय ही पर्यावरण को विकृत और दृषित करनेवाली समस्त विपदाएँ हमारी अपनी ही लाई हुई हैं। हम स्वयं ही प्रकृति का संतुलन बिगाड़ रहे हैं।
इसी असंतुलन से भूमि, वायु, जल और ध्वनि के प्रदूषण उत्पन्न होते हैं। पर्यावरण प्रदूषण (Environmental Pollution) से फेफड़ों के रोग, हृदय और पेट की बीमारियाँ, देखने और सुनने की क्षमता में कमी तथा मानसिक तनाव (Mental Stress) आदि बीमारियाँ हो रही हैं।
आज विश्व की जनसंख्या (World Population) 5 अरब के आसपास है। 1947 में जब हम स्वाधीन हुए थे, तो हमारी आबादी 33 करोड़ थी। अब यह बढ़कर लगभग एक अरब को पार कर गई है।
इस आबादी की अपनी भोजन, वस्त्र और आवास की समस्याएँ हैं, जिनकी पूर्ति के लिए धरती के संचित संसाधनों को अंधाधुंध बेरहमी से निचोड़ा जा रहा है।
बड़े पैमाने पर वन-जंगल (Forest) काटे जा रहे हैं। खेती करने, घर बनाने, कल-कारखाने लगाने, सड़कें और रेल की पटरियाँ बिछाने के लिए भूमि चाहिए।
सिंचाई (Irrigation) और बिजली की आपूर्ति करने के लिए नदियों और झरनों के स्वाभाविक प्रवाहों को मोड़कर/बदलकर और रोककर बड़े-बड़े बाँध बनाए जाते हैं, जिससे जंगल जल मग्न होते हैं ।
इमारती लकड़ी और कच्चे माल के लिए गत पचास वर्षों में वनों की कटाई इतनी तेजी से हुई कि जंगलों और पशु-पक्षियों का सफाया-सा हो गया।
दूसरी ओर रासायनिक उर्वरकों (Chemical Fertilizers) और कीटनाशक दवाइयों के छिड़काव से भूमि को दूषित और विषैली बना दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप स्वच्छ, शुद्ध अनाज और फल-सब्जियाँ दुर्लभ हो गईं।
वैज्ञानिक आविष्कारों और बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप प्राणवायु सर्वाधिक दूषित और विषैली हो चली है।
बेशुमार धुंआ उगलते कल-कारखाने, सड़कों पर पेट्रोल और डीजल का विशाल धुंआ सारे पर्यावरण को रुग्ण, विषैला और निर्जीव बना रहा है।
कल-कारखाने (Factories) से निकलने वाले कचरे के ढेर नदी-नालों और जलाशयों के निर्मल जल को प्रदूषित और जहरीला बना रहे हैं। कचरे के बचे-खुचे ढेर से खुली भूमि पर सड़ते हुए जहरीले रसायनों और उनसे निकलने वाली विषैली गैसों से हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित हो रही है।
अनवरत दौड़ती हुई बसों, रेलगाड़ियों, मोटरकारों और स्कूटरों का निरंतर बढ़ता उमड़ता हुआ भारी शोर कल-कारखानों के शोर को दुगुना करता हुआ हमें धीरे-धीरे बधिर बनाने पर तुला हुआ है।
यदि इसी गति से हमारे पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती गई तो मानव जीवन की समस्त आशाप्रद संभावनाएँ विनष्ट हो जाएँगी।
अतएव आवश्यक है, कि कल-कारखानों की चिमनियों को न केवल ऊँचा उठाया जाए, बल्कि उसकी गंदगी को रोकने का प्रयास किया जाए।
यातायात के साधनों से भी धुआँ कम-से-कम निकलें, विषैले पदार्थ और कूड़ा-कचरा नदियों तथा जलाशयों में प्रवाहित न किया जाए। अधिकाधिक वृक्ष (Tree) लगाए जाएँ। हमारा पर्यावरण और उसके संरक्षण का प्रश्न ही हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है।