राजा राममोहन राय (Raja Ram Mohan Roy) ने 20 अगस्त, 1828 को ब्रह्म सभा नाम से एक नए समाज की स्थापना की, जिसे आगे चलकर ब्रह्म समाज के नाम से जाना गया।
इस समाज ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और एक ब्रह्म की पूजा का उपदेश दिया। यह ऐसे लोगों की जमात थी, जो ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे और मूर्ति पूजा से अलग रहते थे।
इस नवीन धर्म में सामाजिक रीति-रिवाजों एवं धार्मिक कर्मकांडों के लिए कोई स्थान नहीं था।
ब्रह्म समाज ने रंग, वर्ण अथवा मत पर विचार किए बिना मानव मात्र के प्रति प्रेम तथा जीवन की उच्चतम विधि के रूप में मानवता की सेवा पर बल दिया।