संसदीय लोकतंत्र की सफलता की एक आवश्यक शर्त यह है कि एक संगठित विपक्षी दल अवश्य रहे। भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि ब्रिटेन और अमेरिका की तरह यहाँ ऐसा कोई विरोधी दल नहीं है जो अकेले अपनी सरकार बनाने में समर्थ हो सके।
भारत में राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण की दिशा में कभी ठोस कदम नहीं उठाया जा सका। जयप्रकाश नारायण (Jayaprakash Narayan) के प्रयास के फलस्वरूप सन् 1977 ई० के चुनाव के अवसर पर पहली बार विपक्ष ने जनता पार्टी के रूप में उभरकर सत्ता प्राप्त की।
परंतु, कालांतर में इस दल ने भी अपने को एक गठबंधन सिद्ध कर दिया और बिखरकर पुनः कई दलों में विभक्त हो गया।
प्रतिपक्षी एकता के प्रयास के फलस्वरूप 1983 में भारतीय जनता पार्टी और लोकदल द्वारा राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा तथा जनता पार्टी का काँग्रेस (स), लोकतांत्रिक समाजवादी दल और राष्ट्रवादी काँग्रेस द्वारा गठित संयुक्त मोर्चा बना, परंतु यह काँग्रेस (इ) का विकल्प नहीं बन सका।
कुछ हद तक चुनावी तालमेल में भले ही इन्हें सफलता मिली, परंतु भारतीय राजनीति में इनकी कोई स्पष्ट भूमिका देखने को नहीं मिल सकी।
सन् 1996 ई० तक काँग्रेस (इ) पार्टी सशक्त बनी रही, परंतु 1996 के बाद लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी एक सशक्त दल के रूप में उभरकर आई और काँग्रेस (इ) को विपक्ष की ही भूमिका निभाने के लिए बाध्य होना पड़ा।
सन् 2004 में परिस्थिति में हलका परिवर्तन हुआ और 2004 के लोकसभा चुनाव में सदन में सर्वाधिक स्थान पानेवाली पार्टी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ही रही।
कई दलों को मिलाकर एक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन बना और केंद्र में इसी गठबंधन की सरकार बनी। इस प्रकार आठ वर्षों के अंतराल के बाद काँग्रेस पुनः सत्तारूढ़ दल की श्रेणी में आ गई।
भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए बाध्य होना पड़ा। 2014 एवं 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन (राजग) के सत्ता में आने के बाद कोई भी दल विरोधी दल का दर्जा पाने में भी असमर्थ रहा है।