मनुष्य तथा पर्यावरण का अटूट सबंध है जो पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के समय से ही निरंतर चला आ रहा है। मनुष्य एवं पर्यावरण एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
इस प्रक्रम में मनुष्य में स्वयं को बदलते वातावरण के साथ अनुकूलित करने की क्षमता होती है, इस अनुकूलन के अनेक उदाहरण हम देख सकते हैं, जैसे - मलेरिया संभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की कुछ लाल रक्त कणिकाएँ (RBCs) दराँती के आकार जैसी (Sickle Shaped) हो जाती हैं।
जिससे इनमें मलेरिया फैलाने वाले प्रोटोजोआ जीवित नहीं रह पाते और मनुष्य मलेरिया से सुरक्षित रहते हैं।
ठंडे तथा पहाड़ी क्षेत्रों में वहाँ के निवासियों की नाक लंबी तथा सँकरी (Narrow) होती है तथा उनके रक्त में RBCs की संख्या अधिक होती है।
लंबी तथा सँकरी नाक से गुजरते समय बाहर की ठंडी वायु गर्म हो जाती है, जिससे फेफड़ों को नुकसान नहीं पहुंच पाता है।
बढ़ी हुई RBCs (Red Blood Corpuscles) अधिक ऑक्सीजन को ग्रहण कर लेती हैं, जिससे लोगों को पर्याप्त ऑक्सीजन प्राप्त होती है।
उल्लेखनीय है कि ऊँचाई पर ऑक्सीजन (Oxygein) की मात्रा कम होती है।
मनुष्य अपनी व्यापक गतिविधियों से पर्यावरण पर प्रभाव डालता है। प्रारंभिक काल में आदिमानव का प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सहजीवन (Symbiosis) का नाता था।
वह प्रकृति से फल-फूल, दवाएँ, पशुओं का मांस आदि ग्रहण करता था, साथ ही वह प्रकृति का संरक्षण भी करता था।
धीरे-धीरे मनुष्य ने समाज एवं संस्कृति का विकास किया तथा इसी क्रम में उसका भी विकास हुआ।
प्रौद्योगिकी के विकास के साथ ही मनुष्य ने प्राकृतिक पर्यावरण का अपने स्वार्थों के लिये शोषण करना आरंभ करने दिया।
प्राकृतिक पर्यावरण के ह्रास एवं शोषण की यह मानवीय गतिविधियाँ आज भी जारी हैं।
जैसे-वनों की कटाई, झूम खेती, नगरीकरण, औद्योगीकरण, सड़क, रेल की पटरियों, नहरों आदि के कारण आज मानव एवं प्राकृतिक पर्यावरण का संबंध असंतुलित हो गया है।
जिसके भयानक दुष्परिणाम प्रदूषण, वैश्विक तापन (Global Warming), बाढ़, चक्रवात, सूखा आदि के रूप में देखने को मिलते हैं।