आधुनिक कृषि का पर्यावरण पर प्रभाव। Adhunik Krishi Ka Paryavran Par Prabhav
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि ने कृषि उत्पादों की मांग में वृद्धि की है जिससे अधिक-से-अधिक फसलों को उगाने के लिये वनों को खेती के उपयुक्त भूमि में बदला जा रहा है।
यह समस्या विशेषतः जनजाति क्षेत्रों में देखी जा रही है जहाँ की झूम खेती विश्व के विभिन्न जनजाति तथा पिछड़े क्षेत्रों में प्रचलित है।
खाद्यान्न उत्पादन (Food Production) में वृद्धि के लिये शुरू की गई हरित क्रांति ने कृषि में कृत्रिम उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया है।
कृत्रिम उर्वरकों (Artificial Fertilizers) के अत्यधिक उपयोग के कारण पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो रही हैं।
कृषि में उपयोग किये गए उर्वरकों को वर्षा जल या सिंचित जल अपने साथ झीलों व नदियों तक ले जाता है, जिस कारण जल प्रदूषण (Water Pollution) भी उत्पन्न हो रहा है।
अत्यधिक मात्रा में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होना जल स्रोतों में सुपोषण (Eutrophication) को बढ़ावा देता है जिससे जलीय क्षेत्रों में हरे शैवाल में अत्यधिक वृद्धि होती है व जलीय जीवों पर संकट उत्पन्न होता है।
कृषि में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से फसल को हानि पहुँचाने वाले कीटों के साथ वे कीट भी मर जाते हैं जो कृषि में परागण की क्रिया के लिये उपयोगी होते हैं।
कीटनाशकों की मात्रा में वृद्धि खाद्य श्रृंखला को भी प्रभावित करती है। कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग खाद्य पदार्थों को भी खाने योग्य नहीं रहने देता।
कृषि में बढ़ता बाजारीकरण उच्च उत्पाद देने वाली किस्मों के उत्पादन को बढ़ावा देता है जिससे उच्च उत्पाद देने वाली फसलें पारम्परिक फसलों वाली कृषि का स्थान ले लेती हैं।
पारम्परिक फसलें (Traditional Crop) बहुफसली पद्धति पर आधारित होने के कारण फसल चक्रण के नियमों का पालन करती थीं।
जिससे मृदा में पोषक तत्त्वों की कमी नहीं होती थी किन्तु उच्च उत्पाद वाली फसलें एकल कृषि को बढ़ावा देती हैं।
जो लम्बे समय में मृदा में पोषक तत्त्वों में कमी लाती हैं जिससे उत्पादन एवं उत्पादकता प्रभावित होती है।