दक्षिण भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में पल्लवों का विशेष स्थान है। इन्होंने छठी सदी में अपनी राजधानी कांचीपुरम में स्थापित की । इन का प्रभुत्व तमिल क्षेत्र के उत्तरी भाग में 9 वीं सदी तक कायम रहा। अपने साम्राज्य के उत्तर में अवस्थित चालुक्यों एवं दक्षिण में चोरों एवं पांडवों के साथ इनका सदैव संघर्ष होता रहा ।
पल्लवों का प्रथम महत्वपूर्ण शासक महेंद्र वर्मन प्रथम (600 से 630) हुआ। चालुक्य शासक पुलिकेशियन द्वितीय ने इसे पराजित किया था। महेंद्र वर्मन का पुत्र नरसिंह वर्मन एक महान योद्धा था इसने अपने पिता के पराजय का बदला लिया। पुलिकेशियन द्वितीय को पराजित कर इसमें वातापीकोंडा की उपाधि धारण की।
पल्लवों की सांस्कृतिक उपलब्धि :- पल्लवों को द्रविड शैली के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। पल्लव कालीन वास्तुकला के उदाहरण इनकी राजधानी कांचीपुरम् एवं महाबलीपुरम् में पाये जाते हैं। पल्लवों ने वास्तुकला को काष्ठ और कन्दरा कला से मुक्त किया। इनके समय में मंदिर निर्माण की चार शैलियों का विकास हुआ। इनमें रथ शैली के मंदिर महाबलीपुरम् में बने हैं जो देखने में रथ की तरह लगते हैं। अन्य शैलियों में तटीय मंदिर और कांची के कैलाशनाथ मंदिर महत्वपूर्ण हैं जो स्थापत्य कला के असाधारण नमुने हैं।
काष्ठ कला:- मंदिर निर्माण या वास्तुकला के विविध रूपों में लकड़ी के प्रयोग की प्रधानता रहती है। इस कला में मंदिरों के दीवार, बीम एवं छत के निर्माण में लकड़ी को अलंकृत कर इस्तेमाल किया जाता है।
द्रविड़ शैली - द्रविड़ शैली के मंदिर दक्षिण भारत (कृष्णा नदी के दक्षिण) में पाये जाते हैं। इसमें मंदिर का आधार आयताकार तथा शिखर गर्भगृह के ऊपर अनेक खण्डों में बना होता है। ऊपर का प्रत्येक खण्ड क्रमश: अपने नीचे के खण्ड से छोटा होता है। शीर्षभाग में गुम्बद के आकार की कई । स्तूपिकाएँ होती हैं। आगे चलकर मंदिर के साथ-साथ स्तंभ युक्त मंडप, गलियारा तथा गोपुरम् (प्रवेश द्वार) बनाए।
पल्लवों ने संस्कृत एवं तमिल भाषा को भी संरक्षण प्रदान किया । महेन्द्रवर्मन स्वंय एक महान् विद्वान था। पल्लवों के समय वैष्णव संत (भगवान विष्णु में आस्था रखनेवाले) वैष्णवसंत एवं शैवसंतों (शिवभक्त) को भी सम्मान प्रदान किया गया।
आगे चलकर दक्षिण भारत में चोलों ने पल्लवों का और दक्षिणापथ में चालुक्यों का स्थान राष्ट्रकूटों ने ले लिया।
दक्षिण भारत के राज्यों में स्थानीय स्वशासन :- उस समय के ऐतिहासिक स्रोतों से हमें स्थानीय स्वशासन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। ग्रामीण स्तर पर तीन तरह के संगठन थे - उर, सभा एवं नगरम । उर के सदस्य सामान्यतः प्रभावशाली वयक्ति होते थे। इसे ब्राह्लामण भू-स्वामियों का संगठन भी कहा जाता था।
सभा कई उपसमितियों में विमक्त थी, जिनका कार्य सिंचाई का साधन विकसित करना, खेती-बाड़ी से जुड़े विभिन्न कामों को देखना, सड़क-निर्माण करना, स्थानीय मंदिरों की देखरेख करना, शिक्षण संस्थानों एवं बाजार की व्यवस्था करना मुख्य कार्य था। नगरम् व्यापारियों का संगठन था। इस पर शक्तिशाली भू-स्वामियों और व्यापारियों का नियंत्रण था। ये संस्थाएँ आगे की शताब्दियों में और शक्तिशाली हो गई थीं।