इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद थे जिन्हें पैगम्बर भी कहा जाता है। उनके कबीले के लोग उन्हें 'ऊल-अमीन' कहते थे।
मुहम्मद साहब का जन्म तकरीबन 612 ई. में मक्का के कुरेश परिवार में हुआ था। कहीं-कहीं यह तिथि 571 भी है और यह ज्यादा सही प्रतीत होती है। उनका शुरूआती जीवन बहुत ही कष्ट में बीता।
पच्चीस वर्ष की उम्र में उन्होंने खदीजा नामक एक विधवा के यहाँ नौकरी की। तदोपरांत उन्होंने उससे (खदीजा से) विवाह भी कर लिया। अब वे धर्म के विषय में सोचने लगे।
इससे पहले अरब लोग कबीले में बँटे हुए थे। प्रत्येक कबीले का नेतृत्व एक शेख करता था। वैसे ज्यादातर व्यक्तिगत साहस, बुद्धिमत्ता एवं उदारता (मुरब्बा) के आधार पर चुनाव किया जाता था।
प्रत्येक कबीले के अपने खुद के देवी-देवता मौजूद थे। इन देवी-देवताओं को बुतों (सनम) के रूप में पूजा जाता था। बहुत से अरबी कबीले खानाबदोश (बददू या बेदूइन) जीवन बिताते थे।
पैगम्बर मुहम्मद का अपना कबीला कुरैश, मक्का में रहता था एवं उसका वहाँ प्रमुख धर्मस्थल पर नियंत्रण था। इस स्थल का ढाँचा घनाकार था तथा उसे काबा कहा जाता था।
इस काबा में बूत रखे जाते थे। मक्का के बाहर के कबीले भी काबा को पवित्र मानते थे। वे इसमें भी बूत रखते थे। प्रत्येक वर्ष इस इबादतगाह (प्रार्थना स्थल) की धार्मिक यात्रा (हज) करते थे।
काबा को एक पवित्र जगह (हरम) माना जाता था। वहाँ हिंसा को वर्जित माना जाता था। सभी श्रद्धालुओं को सुरक्षा प्रदान की जाती थी। बातचीत करने एवं अपने विश्वासों तथा रीति-रिवाजों को आपस में बाँटने का अवसर दिया। हालांकि बहुदेववादी अरबों को अल्लाह कहे जाने वाले परमात्मा की धारणा के बारे में अस्पष्ट सी ही जानकारी थी। शायद उनके बीच रहने वाले यहूदी और ईसाई कबीले का कारण रहा हो। मगर मूर्तियों एवं इबादतगाहों के साथ उनका अटूट संबंध था।
धर्म के बारे में सोचने के क्रम में पूर्व से चले आ रहे धार्मिक अवधारणाओं में पैगम्बर ने कुछ कमियाँ पायीं। जब वे हीरा नामक पहाड़ पर ध्यानमग्न थे तब ही एक दिन उन्हें सत्य का ज्ञान हुआ।
ऐसा विश्वास किया जाता है कि 611 ई. में खुदा के एक दूत जिब्राइल ने उनकेपास सत्य का सन्देश पहुँचाया। तब वे पैगम्बर अर्थात् खुदा के रसूल या संदेशवाहक (Messenger) घोषित किए गए। उसके बाद पैगम्बर मुहम्मद ने एक ईश्वर, अल्लाह की पूजा करने का तथा आस्तिकों (उम्मा) के एक ही समाज की सदस्यता का प्रचार किया। यह इस्लाम का मूल था। इस तरह उन्होंने अंधविश्वास, अज्ञानता एवं मूर्ति पूजा का विरोध किया।
इसी क्रम में मुहम्मद साहब ने जो धर्म चलाया, वह इस्लाम (Islam) कहलाया। इस्लाम का अर्थ अपने को अल्लाह (ईश्वर) के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित करना है।
इस्लाम धर्म की ईबादत की विधियाँ सरल थीं यथा दैनिक प्रार्थना (सलत) एवं नैतिक सिद्धान्त जैसे खैरात बांटना एवं चोरी न करना। लेकिन मक्का में उस समय 'काबा' के दर्शन के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से प्रत्येक वर्ष काफी संख्या में तीर्थयात्री (श्रद्धालुगण) आते थे।
इससे कुरेश जाति को आर्थिक आमदनी होती थी। अपने धर्म प्रचार के दौरान जब मुहम्मद साहब ने मूर्ति पूजा का विरोध किया तब वे उनके लिए बाधा बन गए।
मक्का के समृद्ध लोगों ने मुहम्मद साहब एवं उनके अनुयायियों का जबर्दस्त विरोध किया। उन समृद्ध लोगों ने इस नये के इस्लाम धर्म को मक्का की प्रतिष्ठा एवं समृद्धि के लिए खतरा समझा था।
सन् 622 ई. में पैगम्बर मुहम्मद को अपने अनुयायियों के साथ मदीना की ओर पलायन करना पड़ा। पैगम्बर की इस यात्रा (हिजरा) से इस्लाम के इतिहास में एक नया मोड़ आया। मदनामु वालों ने मुहम्मद साहब का खूब स्वागत किया। वहाँ के अनेक मुसलमान उनके समर्थक बन गए एवं उन्होंने इस्लाम धर्म तस्लिम कर ली।
वे अंसारी कहे जाने लगे। मक्का छोड़कर मदीना में बसने वाले मुसलमान मुहाज्जरिन कहे गए। जब मदीना में उनके अनुयायियों की संख्या काफी बढ़ गयी तब वे मक्का आए एवं मक्का के लोगों ने भी इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।
8 जून, 632 को मुहम्मद साहब का देहांत हो गया। मुहम्मद साहब के उपदेश-मुहम्मद साहब ने अल्लाह से आदेश के रूप में जो पाया वह मुसलमानों के धर्म ग्रंथ 'कुरानशरीफ' में संकलित है। यह मुसलमानों का महान धर्म ग्रंथ है।
मुहम्मद साहब ने समय-समय पर जो उपदेश दिए, उनका संकलन 'हदीस' में है। मुहम्मद साहब के उपदेश अधोलिखित हैं
(i) अल्लाह एक है, वह सर्वशक्तिमान है और सर्वव्यापी भी। मुहम्मद साहब उसके पैगम्बर (सन्देशवाहक) हैं।
(ii) सभी प्राणी अल्लाह के संतान हैं। अतः वे सभी भाई-भाई हैं।
(iii) मानव सेवा में ही सच्चा सुख एवं इसी से खुदा प्रसन्न रहते हैं।
(iv) सुकर्म करने वाला व्यक्ति अल्लाह से का सबसे बड़ा भक्त है।
(v) कयामत के दिन सुकर्म करने वालों को जन्नत एवं दुष्कर्म करने वालों को दोखज (नरक) मिलेगा।
(vi) सबसे पवित्र धर्मग्रंथ कुरान है।
नैतिक कर्त्तव्य : उपर्युक्त उपदेशों के अलावे इस्लाम के निम्नलिखित पाँच सिद्धांत हैं जिनका पालन करना प्रत्येक मुसलमान के लिए अपरिहार्य है।
(i) शहादत-प्रत्येक मुसलमान को तस्लिम करना पड़ता है कि अल्लाह को छोड़कर दूसरा देवता नहीं है एवं मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।
(ii) नमाज प्रत्येक मुसलमान को मक्का की ओर मुँह करके दिन में पाँच बार नमाज पढ़नी चाहिए।
(iii) दान (जकात)-प्रत्येक मुसलमान को गरीबों को दान देना चाहिए।
(iv) रोजा-प्रत्येक मुसलमान को रमजान के महीने में सुबह से शाम तक उपवास करना चाहिए।
(v) हज-'हज' का अर्थ है काबा के चारों ओर घुमना। प्रत्येक को जीवन में एकबार हज करना जरूरी है।
मुसलमान इसके अलावे, इस्लाम की कुछ अन्य मान्यताएँ भी निर्धारित की गयीं हैं और कुछ प्रथाओं का निषेध किया गया है। किसी भी मुसलमान के लिए मूर्तिपूजा निषेध है। इसी कारण मुहम्मद साहब का कोई चित्र या मूर्ति उपलब्ध नहीं है। सूअर को अपवित्र जानवर माना गया है। इसलिए उसका मांस खाना वर्जित है। मुसलमानों को सूद पर रुपया उधार नहीं देना चाहिए। उन्हें विवाह और तलाक में निर्धारित नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। इस प्रकार कुरान के अलावे मुहम्मद साहब की जीवनचर्या एवं उनके उपदेशों से सभी शिक्षा लेते हैं। मुहम्मद का जीवन चर्या ‘सुन्नत' में वर्जित है। ‘हदीस' में उनके उपदेशों का संग्रह है।