प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी और उसके सहयोगी राज्य (आस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गेरिया और टर्की) पराजित हुए और विजयी मित्रराष्ट्रों ने युद्धोत्तर काल की व्यवस्था स्थापित करने के निमित्त पेरिस में 1919 ई. में एक शांति-सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में सभी विजयी राष्ट्रों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे, लेकिन सम्मेलन के निर्णयों पर निर्णायक प्रभाव अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज तथा फ्रांस के प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लिमेंशू का ही पड़ा था । सम्मेलन ने पराजित राज्यों से समझौता करने के लिए पाँच शान्ति-संधियों का प्रारूप तैयार किया जिसके फलस्वरूप यूरोप का मानचित्र बिल्कुल ही बदल गया ।
आस्ट्रिया के साथ सेंट जर्मन की संधि हुई जिसके फलस्वरूप पुराना आस्ट्रियाई साम्राज्य टुकड़ों में विभक्त हो गया । आस्ट्रिया ने हंगरी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया और युगोस्लाविया को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्वीकार कर लिया। इन राज्यों को पुराने आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के बहुत से भू-भाग प्राप्त हुए जिसके फलस्वरूप आस्ट्रिया को क्षेत्रफल और आबादी की दृष्टि से तीन-चौथाई भागों की हानि उठानी पड़ी। हंगरी के साथ त्रियानो की संधि हुई जिसके अनुसार उसे अपने सभी पड़ोसी राष्ट्रों को अपने भू-भाग से कुछ न कुछ हिस्सा देना पड़ा । फलतः, हंगरी का क्षेत्रफल और जनसंख्या बहुत कम हो गया। तीसरी संधि-निऊली की सन्धि– बुल्गेरिया के साथ हुई । इसके अनुसार बुल्गेरिया को उन अधिकृत प्रदेशों को लौटा देना पड़ा जिनको उसने युद्धकाल में जीता था। सबसे अंत में तुर्की के साथ सेब की संधि की गई। इस संधि ने ओटोमन साम्राज्य का प्रायः विघटन ही कर दिया। बाल्कन क्षेत्र के उसके सभी राज्य पूर्ण स्वतंत्र हो गए और एशिया और अफ्रीका में भी उसके साम्राज्य की समाप्ति हो गई | सबसे महत्त्वपूर्ण संधि वर्साय की संधि - जर्मनी के साथ की गई और इसके फलस्वरूप जर्मनी को भी काफी प्रादेशिक क्षति उठानी पड़ी ।
शांति संधियों के फलस्वरूप यूरोप में अनेक नए और स्वतंत्र राज्यों का जन्म हुआ। उनकी सीमाओं में अनेकानेक परिवर्तन हुए और इस तरह पूरे दक्षिण-पूर्वी तथा मध्य यूरोप का ‘बाल्कनीकरण' हो गया, क्योंकि नए-नए राज्यों के उदय से नई-नई समस्याएँ उठ खड़ी हुईं और यूरोप की राजनीति पहले से भी अधिक उलझ गई । जैसे— नए-नए राज्यों के निर्माण के कारण यूरोप में बारह हजार मील लम्बी नई सीमाएँ बन गईं । इनकी सुरक्षा का एक विकट प्रश्न उपस्थित हुआ, जिसके फलस्वरूप शस्त्रास्त्रों की होड़ फिर चल पड़ी । शान्ति-संधियों ने यूरोप में अनेक 'खतरनाक स्थल' पैदा कर दिए । ये खतरनाक स्थल राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों को लेकर उत्पन्न हुए । नए स्वतन्त्र राज्यों का निर्माण राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के आधार पर हुआ था। लेकिन, उदाहरणस्वरूप, यह संभव नहीं था कि चेकोस्लोवाकिया के राज्य में केवल चेक जाति के लोग ही रहें । जिन भू-भागों पर चेकोस्लोवाकिया या पोलैण्ड के राज्य बने, उन पर सैकड़ों वर्षों से असंख्य जर्मन निवास करते आ रहे थे और यह संभव नहीं था कि उन्हें वहाँ से निकालकर बाहर किया जाए। अतः उन्हें अपने निवास स्थानों में बने रहने दिया गया। ऐसे ही जर्मन चेकोस्लोवाकिया या पोलैण्ड के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक कहलाए। उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए व्यवस्थाएँ की गयीं, फिर भी यह निश्चित था कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक कभी प्रसन्न नहीं रहेंगे और अपनी रक्षा के लिए वे जर्मनी की ओर देखेंगे। इस कारण यूरोप का वातावरण इन संधियों के संपन्न होने के तुरंत बाद ही अत्यन्त तनावपूर्ण हो गया ।
वर्साय की संधि - जर्मनी के साथ की गई वर्साय की संधि एक वृहत प्रलेख था जिसमें कुल 440 धाराएँ थीं। इसके अनुसार जर्मनी की प्रादेशिक सीमाओं में घोर परिवर्तन हुआ। 1870 ई. में जर्मनी ने एल्सेस और लोरेन के दो प्रान्त फ्रांस से छीन लिए थे। ये प्रान्त फ्रांस को वापस मिल गए । जर्मनी को सबसे अधिक नुकसान पूर्वी सीमा पर उठाना पड़ा, क्योंकि इस तरफ के अधिकांश भू-भागों को छीनकर नव-निर्मित पोलैण्ड के राज्य को दे दिया गया । समुद्र-तट तक पोलैण्ड को पहुँचाने के लिए जर्मनी के बीचोबीच एक विस्तृत भू-भाग निकालकर पोलैण्ड को दिया गया । इसमें पोसेन और पश्चिमी प्रशा का पूरा क्षेत्र पड़ता था । यह क्षेत्र बाद में पोलिश गलियारा कहा जाने लगा। इसके कारण पूर्वी प्रशा शेष पोलिश गलियारे के उत्तरी छोर पर डान्जिंग का जर्मन बंदरगाह था जिसकी संपूर्ण आबादी जर्मन थी । डान्जिंग को एक 'स्वतन्त्र नगर' घोषित करके उसे राष्ट्रसंघ की प्रशासनिक देखरेख में रख दिया गया। मेमेल नामक बाल्टिक तटवर्ती बंदरगाह को भी राष्ट्रसंघ के अंतर्गत कर दिया गया, जिस पर बाद में लिथुएनिया ने अधिकार कर लिया। 1864 ई. में बिस्मार्क ने श्लेसविंग का प्रान्त डेनमार्क से छीन लिया था । यहाँ के अधिकांश निवासी डेनमार्क के साथ मिलना चाहते थे । अतः, श्लेसविग में लोकमत का प्रबन्ध किया गया और इसके परिणामस्वरूप श्लेसविग का प्रान्त डेनमार्क को मिल गया । इसके अतिरिक्त, साइलेसिया का छोटा हिस्सा चेकोस्लोवाकिया को तथा यूपेन, मार्सनेट तथा मल्मेडी के क्षेत्र बेल्जियम को प्राप्त हुए । प्रशान्त महासागर के कई द्वीपों और अफ्रीकी महादेश में जर्मनी के चार उपनिवेश थे । इन सभी उपनिवेशों को जर्मनी को छोड़ना पड़ा । इस प्रकार की प्रादेशिक व्यवस्था से जर्मनी को अपने तेरह प्रतिशत भू-भाग और दस प्रतिशत आबादी से हाथ धोना पड़ा ।
वर्साय संधि की सैनिक और आर्थिक व्यवस्थाओं ने प्रादेशिक व्यवस्था को पूरा किया । जर्मन सेना की अधिकतम संख्या एक लाख निश्चित कर दी गई । जर्मन प्रधान सैनिक कार्यालय उठा दिया गया । अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य युद्धोपयोगी सामग्री के उत्पादन पर कड़ा प्रतिबन्ध लगा दिया गया । जर्मनी के सभी नौ - सैनिक जहाज जब्त कर लिए गए । यह भी निश्चित हुआ कि जर्मनी की नौ-सेना में केवल छ: युद्धपोत और इतने ही गश्ती जहाज और विध्वंसक रह सकते हैं । पनडुब्बी जहाजों का निर्माण जर्मनी नहीं कर सकता था । निरस्त्रीकरण की इस व्यवस्था का पालन कराने और निगरानी रखने के लिए जर्मनी के खर्च से मित्रराष्ट्रों का एक सैनिक आयोग स्थापित किया गया । राइन नदी के बाएँ किनारे ( राइन लैण्ड) पर इकत्तीस मील तक के भू-भाग का स्थायी रूप से असैनिकीकरण कर दिया गया और पंद्रह वर्षों तक इस पूरे क्षेत्र पर मित्रराज्यों के आधिपत्य बने रहने की व्यवस्था की गयी । इस प्रकार, सैनिक दृष्टि से जर्मनी को एकदम पंगु बना दिया गया ।
वर्साय संधि की 231 वीं धारा में जर्मनी और उसके सहयोगी राज्यों को प्रथम विश्वयुद्ध के विस्फोट के लिए एकमात्र जिम्मेवार माना गया और इस आधार पर मित्रराष्ट्रों को युद्ध में जो क्षति उठानी पड़ी थी उसके लिए जर्मनी को क्षतिपूर्ति करने को कहा गया । क्षतिपूर्ति की वास्तविक रकम संधि द्वारा तय नहीं की गई । यह व्यवस्था की गई कि 1921 ई. तक जर्मनी पाँच अरब डालर दे दे और एक क्षतिपूर्ति आयोग को अंतिम रकम निश्चित करने की जिम्मेवारी सौंपी गई । युद्धकाल में जर्मनी ने फ्रांस के लोहे और कोयले का भरपूर प्रयोग किया था । अतः, लोहे और कोयलों की खानों से भरा पड़ा सार का इलाका पंद्रह वर्षों के लिए फ्रांस को दे दिया गया। इस अवधि के समाप्त होने पर सार का भविष्य एक लोकमत से तय होने का प्रावधान किया गया । यदि सार की जनता जर्मनी के पक्ष में निर्णय देगी तो जर्मनी को वहाँ की खानों को फ्रांस से खरीदना पड़ेगा ।
युद्ध का विस्फोट कराने के लिए जर्मन नेताओं की नैतिक निन्दा की गई और अंतरराष्ट्रीय नियमों, संधियों तथा युद्ध के नियमों के उल्लंघन के लिए उन्हें दोषी करार दिया गया । सम्राट कैजर और उसके अन्य उच्च पदाधिकारियों पर युद्ध - अपराध के लिए मुकदमा चलाकर उन्हें सजा देने की बात भी वर्साय संधि में की गई, यद्यपि इस प्रयास में मित्रराष्ट्रों को आंशिक सफलता ही मिली ।
आरोपित संधि - 28 जून, 1919 को वर्साय के राजमहल में जर्मनी तथा मित्रराष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने संधि पर हस्ताक्षर किए । इस संधि का आधार दो पक्षों के बीच विचारों का आदान-प्रदान नहीं था । इसकी शर्तें विजयी राष्ट्रों द्वारा एक विजित राष्ट्र पर जबरदस्ती और धमकी देकर लादी गई थी । जर्मनी को इस संधि पर विचार करने के लिए अवसर ही नहीं दिया गया था । संधि का प्रारूप तैयार करके जर्मनी के पास इसे एक बार भेजा अवश्य गया था, लेकिन इसकी शर्तों में किसी प्रकार का संशोधन करने का अधिकार उसे नहीं दिया गया था । जब जर्मनी ने इस आधार पर कि संधि की शर्तें विल्सन के चौदह सूत्रों पर आधारित नहीं हैं, एक स्वर से इस संधि का विरोध किया तो मित्रराष्ट्रों की ओर से उसको धमकी दी गई कि यदि जर्मनी संधि पर हस्ताक्षर करने में आनाकानी करेगा तो उस पर हमला किया जाएगा और बर्लिन में पहुँचकर उसे संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया जाएगा। इस हालत में जर्मनी के समक्ष कोई विकल्प नहीं था और विवश होकर उसे इस अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े । इसलिए, प्रारम्भ से ही जर्मनी के नेता इस संधि को एक 'आरोपित संधि' की संज्ञा देने लगे ।
संधि के सम्बन्ध में एक दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि शुरू से अंत तक कभी जर्मनी के साथ मामूली शिष्टाचार के नियमों का भी पालन नहीं किया गया । संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए जर्मनी के प्रतिनिधि जब वर्साय पहुँचे तो उन्हें कैदी की तरह काँटेदार तारों से घिरे एक होटल में ठहराया गया और उन्हें किसी भी व्यक्ति के साथ सम्पर्क कायम करने की मनाही कर दी गई । संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद जर्मन प्रतिनिधि ने कहा, “हमारे प्रति फैलायी गई उग्र घृणा की भावना से हम आज सुपरिचित हैं । देश दबाव के कारण आत्म-समर्पण कर रहा है, किन्तु जर्मनी यह कभी नहीं भूलेगा कि यह एक अन्यायपूर्ण संधि है।" अतः, अतः, जर्मनी ने शुरू में ही यह स्पष्ट कर दिया कि वह वर्साय की संधि को एक आरोपित संधि मानता है, जो नैतिक रूप से बंधनकारी नहीं है ।
क्षतिपूर्ति की कठोर शर्त - वर्साय संधि का यह स्वरूप भविष्य के लिए बड़ा ही घातक सिद्ध हुआ । चूँकि सम्मेलन में जर्मनी को शामिल नहीं किया गया था, इसलिए इसकी कठोर शर्तों का किसी ने विरोध नहीं किया। विरोध के अभाव में संधि का स्वरूप एकपक्षीय हो गया । फिर, चूँकि जर्मन सरकार के किसी प्रतिनिधि को संधि-पूर्व के विचार-विमर्श में शामिल नहीं होने दिया गया था, अतः वहाँ की सरकार के लिए जनमत को संधि के पक्ष में करना असंभव हो गया । वर्साय संधि की असफलता का यह एक मुख्य कारण था । ऐसे भी इस संधि की शर्तें अत्यन्त कठोर थीं और इसका एकमात्र उद्देश्य जर्मनी को पाठ पढ़ाना था । स्वयं ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज ने कहा था, "इस संधि की धाराएँ मृत शहीदों के खून से लिखी गई हैं। जिन लोगों ने इस युद्ध को शुरू किया था उन्हें दुबारा ऐसा न करने की शिक्षा देनी ही थी ।" इसी कारण संधि की शर्तें अत्यन्त कठोर हो गईं । क्षतिपूर्ति की शर्तें तो विशेष रूप से कठोर थीं ही और इसी व्यवस्था के विरोध में ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल के सदस्य मि. किन्स ने अपना पद त्याग करते हुए वर्साय की संधि को 'कार्थेजीनियन' संधि कहा था । क्षतिपूर्ति की कठोर और दर्दनाक व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए विन्सटन चर्चिल ने भी कहा था, "इतिहास इस लेन-देन को पागलपन की संज्ञा प्रदान करेगा। उन्होंने सैनिक अभिशाप और आर्थिक संकट की उत्पत्ति में सहायता पहुँचायी । यह सब उस जटिल मूर्खता की दुःखद कहानी है, जिसकी रचना में पर्याप्त श्रम और सद्गुणों का अपव्यय हुआ था।" सचमुच ही यह कितना बड़ा अन्याय था कि एक पीढ़ी की गलती का परिणाम आनेवाली कई पीढ़ियों को भुगतने के लिए विवश किया जाए ।
अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में कहर ढानेवाली क्षतिपूर्ति की आर्थिक व्यवस्था को वर्साय संधि में क्यों स्थान दिया गया ? इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर यही है कि पेरिस में एकत्र राजनेता राजनीति में आर्थिक तत्त्वों की गुत्थियों को समझने में असमर्थ थे। युद्ध को नौजवानों ने लड़ा था, लेकिन शान्ति - संधि स्थापित करनेवाले बूढ़े लोग (क्लिमेंशू की आयु 78 वर्ष; लॉयड जार्ज 56 वर्ष और विल्सन 63 वर्ष) थे । जीवन की समस्याओं के प्रति इनके मौलिक दृष्टिकोण 1914 ई. के बहुत पहले ही इनके व्यक्तित्व में मूलबद्ध हो चुके थे, जो 1919 ई. में बदले नहीं जा सकते थे। इनमें से किसी को भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों को निर्देशित करनेवाले अर्थशास्त्र के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्ष का कोई ज्ञान नहीं था । इनमें से कोई भी यह समझनेवाला नहीं था कि युद्ध के बाद जो स्थिति पैदा हो गई है, उसमें राजनीति को अर्थनीति से पृथक् नहीं किया जा सकता था । उनकी मौलिक भूल यह थी कि वे इस यथार्थवादी तथ्य को समझने में असमर्थ रहे कि राजनीतिक निर्णयों का अनिवार्य आर्थिक परिणाम होता है ।