औद्योगिक क्रांति के फैलाव के साथ-साथ बाजार का स्वरूप विश्वव्यापी होता गया। इसने व्यापार, श्रमिकों का पलायन और पूंजी का प्रवाह, इन तीन आर्थिक प्रवृत्तियों को जन्म दिया।
व्यापार मुख्यतया कच्चे मालों को इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देशों तक पहुंचाने और वहां के कारखानों में निर्मित वस्तुओं को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाने तक सीमित था।
श्रमिक के प्रवाह के अंतर्गत औपनिवेशक देशों (भारत) से लोगों को निश्चित अवधि के लिए एक समझौता के तहत यूरोपीय देश अपने यहां ले जाते थे। इन मजदूरों की मजदूरी काफी कम होती थी।
पूंजी पलायन के अंतर्गत यूरोपीय देशों के उद्योगपति ने औद्योगिक क्रांति से प्राप्त भारी लाभ को अपने शासित क्षेत्र में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे रेल, खादान, चाय बागान, रबर, कपास आदि के उत्पादन में बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश किया।
इस प्रकार की प्रक्रियाओं ने यूरोप केंद्रित एक विश्वव्यापी अर्थतंत्र को जन्म दिया।
इस अर्थतंत्र को ही विश्व बाजार की संज्ञा देते हैं।