लगभग 1000 ई० पू० में गोत्र प्रथा अस्तित्व में आया। प्रत्येक गोत्र किसी ऋषि के नाम पर होता था। उस गोत्र के सदस्य उसी ऋषि के वंशज माने जाते थे।
एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह नहीं कर सकते थे। विवाह के पश्चात् स्त्रियों का गोत्र पिता के स्थान पर पति का गोत्र माना जाता था।
परंतु सातवाहन इसके अपवाद कहे जा सकते हैं। पुत्र के नाम के आगे माता का गोत्र होता था।
उदाहरण के लिए गौतमी पुत्र शातकर्णी अर्थात् विवाह के पश्चात् भी सातवाहन रानियों ने अपने पति के स्थान पर पिता का गोत्र ही अपनाया।