भारत शासन अधिनियम 1935 ई० को ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किया जाने वाला सबसे लंबा और अंतिम संवैधानिक प्रावधान था।
इस अधिनियम में 321 अनुच्छेद और 10 अनुसूचियां थी। इस अधिनियम द्वारा प्रथम बार भारत में संघीय व्यवस्था का उल्लेख किया गया।
साइमन कमीशन (Simon Commission) की रिपोर्ट, गोलमेज सम्मेलन में हुई चर्चाएं और 19 अक्टूबर 1934 ईस्वी को ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत हुए श्वेत पत्र इस अधिनियम के प्रमुख आधार बने।
1935 ई० के भारत शासन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं —
- भारत परिषद को समाप्त कर दिया गया।
- इस अधिनियम के द्वारा बर्मा को भारत से पृथक कर दिया गया। बरार को मध्य प्रांत में शामिल कर लिया गया और अदन को इंग्लैंड के औपनिवेशिक कार्यालय के अधीन कर दिया गया।
- सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार- मुसलमानों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व तो था ही, सिक्खों, यूरोपीय ईसाईयों और एंग्लो इंडियन लोगों के लिए भी संघीय तथा प्रांतीय व्यवस्थापिका में पृथक प्रतिनिधित्व किए जाने से राष्ट्रीय एकता में गंभीर बाधाएं खड़ी हो गई थी। पृथक निर्वाचन पद्धति का विस्तार दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग तक किया गया।
- इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता पर मुहर लग गई
- प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान की गई प्रांतों में द्वैध शासन का अंत कर दिया गया। प्रांतों को स्वतंत्र और स्वशासित संवैधानिक आधार दिया गया।
- इस अधिनियम द्वारा देश की मुद्रा (Currency) और साख पर नियंत्रण हेतु भारतीय रिजर्व बैंक (Indian Reserve Bank) की स्थापना 1 अप्रैल 1935 ईस्वी को की गई।
- मताधिकार का विस्तार हुआ लगभग 10% जनसंख्या को मताधिकार प्राप्त हुआ।
- केंद्र में द्वैध शासन की स्थापना - केंद्र की कार्यपालिका शक्ति (अंग्रेज सम्राट के ) गवर्नर जनरल में निहित थी। जिसके विधायी अधिकार को दो समूहों में बांटा गया पहला- प्रतिरक्षा, विदेश कार्य, चर्च संबंधी कार्य और जनजाति क्षेत्र का प्रशासन गवर्नर जनरल को स्वविवेक अनुसार करना था। ऊपर आरक्षित विषयों से भिन्न विषयों के बारे में गवर्नर जनरल को मंत्रिपरिषद की सलाह से कार्य करना था।
- केंद्र और प्रांतों के बीच विधाई शक्तियों का वितरण- इस अधिनियम में केंद्र और प्रांतों (प्रांतीय विधान मंडलो) के बीच की गई। विधाई शक्तियों का विभाजन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है, कि हमारे संविधान में संघ और राज्यों के बीच विभाजन अधिकतर इसी आधार पर है।
तीन प्रकार का विभाजन किया गया-
- परिसंघ सूची
- प्रांतीय सूची और
- समवर्ती सूची
तथा निम्न उप-बंधुओं के अधीन रहते हुए। किसी भी विधानमंडल को दूसरे शक्तियों का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं था।
1. परिसंघ सूची के विषयों पर परिसंघ विधान मंडल को विधान (Law) की अनन्य शक्ति थी। इस सूची में विदेशी कार्य, करेंसी और मुद्रा, सेना, नौसेना, वायुसेना, जनगणना, जैसे विषय थे।
2. प्रांतीय सूची के विषयों पर कानून बनाने हेतु प्रांतीय विधान मंडलों की असीमित अथवा अनन्य अधिकारिता थी। इस सूची के विषयों में शामिल थे - पुलिस, प्रांतीय लोकसेवा, शिक्षा।
3. समवर्ती सूची के कुछ विषय थे- दंड विधि और संबंधित प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह, विवाह-विच्छेद और मध्यस्था आदि। इस सूची के विषयों पर परिसंघ और प्रांतीय विधानमंडल दोनों विधान बनाने हेतु सक्षम थे।
- वायसराय द्वारा आपातकाल की घोषणा किए जाने की स्थिति में परिसंघ विधान मंडल को प्रांतीय सूची के विषयों पर विधान बनाने की शक्ति थी। दो प्रांतीय विधान मंडलों के अनुरोध करने पर भी परिसंघ विधानमंडल प्रांतीय विधानमंडल के विषय पर विधान बना सकती थी।
- समवर्ती सूची के क्षेत्र में परिसंघ विधि, प्रांत की विधि पर अभिभावी या प्रभावी होती थी। इस अधिनियम में अवशिष्ट विधाई शक्ति गवर्नर जनरल या वायसराय में निहित थी । वह किसी भी विधानमंडल (परिसंघ या प्रांतीय) को किसी ऐसे विषय पर विधि बनाने के लिए अधिकृत कर सकता था। जिसका उल्लेख विधायक सूची में नहीं था।
- इस अधिनियम के द्वारा एक अखिल भारतीय संघ बनाने की कोशिश की गई, पर देशी रियासतों द्वारा इस संघ में शामिल होने से इनकार करने पर इसकी नौबत ही नहीं आई।
- एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। जिसमें मुख्य न्यायाधीश व दो अन्य न्यायाधीशों की व्यवस्था की गई। इस न्यायालय से संबंधित अंतिम शक्ति प्रिवी कौंसिल (लंदन) प्राप्त थी। न्यायालय का अधिकार क्षेत्र तथा रियासतों तक विस्तृत था।
- इस अधिनियम में प्रस्तावना का अभाव था।