स्वदेशी शीर्षक के अंतर्गत उद्धृत दस दोहों का यह गुच्छ 'प्रेमधन सर्वस्व' का अंश है। इन दोहों में कवि प्रेमधनजी ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के परिपेक्ष्य में 'नवजागरण' को वाणी दी है।
यहाँ कवि की मुख्य चिंता यह है, कि भारतीयों के चाल-ढाल, रहन-सहन, खान-पान और बोलचाल में भारतीयता की जगह अंग्रेजियत झलकती है।
स्थिति यह है, कि भारत के व्यक्ति को देखकर कोई यह नहीं पहचान पाएगा कि वह भारतीय है।
अंग्रेजी पढ़कर लोगों ने विदेशी बुद्धि ग्रहण कर ली है, और ऐसे लोग देश को भी विदेश बनाने पर तुले हैं।
अब इन लोगों को हिन्दुस्तानी कहलाने में शर्म आती है, और अपने देश की वस्तु से इन्हें घृणा होती है।
क्या गाँव और क्या शहर सब जगह अंग्रेजी चाल-ढाल का बोलवाला है, और हाट-बाजार भी अंग्रेजी वस्तुओं से ही अटा पड़ा है।
ऐसे ही लोग देश की बागडोर संभालने की कोरी कल्पना करते हैं, और दास-वृत्ति अपनाकर अंग्रेजों की खुशामद और झूठी प्रशंसा में लगे रहते हैं ।