गर्भ कई झिल्लियों से घिरा होता है। सबसे बाहरी झिल्ली को जरायु [कॉरिऑन (chorion)] कहते हैं।
इसी जरायु से अँगुलियों के आकार के अनेक प्रवर्द्ध निकलते हैं जिन्हें अंकुर [विलाई, (villi)] कहते हैं।
ये अंकुर गर्भाशय की दीवार में धँसकर उसके कोशिकीय परत और रुधिर वाहिनियों से अतिनिकट परत के संपर्क स्थापित कर लेते हैं।
अंकुर और गर्भाशय कोशिकीय परत के संपर्क क्षेत्र को अपरा (प्लेसेंटा, Placenta) कहते हैं।
गर्भ अपरा से एक मजबूत डोरी जैसी संरचना से जुड़ा रहता है जिसे नाभिरज्जु (आम्बिलिकल कॉर्ड, umbilical cord) कहते हैं।
नाभिरज्जु में भी रुधिरवाहिनियों द्वारा अत्यधिक रक्तापूर्ति होती है। अतः नाभिरज्जु माता और गर्भ के बीज संपर्क अंग का कार्य करता है।
गर्भ अपने पोषण और श्वसन हेतु आवश्यक ऑक्सीजन अपनी माता से इसी नाभिरज्जु द्वारा प्राप्त करता रहता है।
जब गर्भ का रुधिर अपरा में प्रवाहित होता है तब वह माँ के रुधिर, जो गर्भाशय की दीवार से प्रवाहित होता है, से पोषक तत्त्व और ऑक्सीजन को अवशोषित कर लेता है।
इसी प्रकार अपरा द्वारा वह अपने उत्सर्जी पदार्थों को भी माँ के रुधिर में छोड़ देता है। इसी प्रक्रिया द्वारा गर्भ अपरा से अपनी आवश्यक चीजे प्राप्त करता है।
आपरा के मुख्यतः दो प्रकार होते हैं, जो इस प्रकार हैं–
- कोरियो-वाइटलिन प्लेसेन्टा : यह मारसूपियलस में पाया जाता है।
- कोरियो-अलटोइस प्लेसेन्टा : यह कुछ मारसूपियलस तथा सभी यूथिरियन में पाया जाता है।