आज सीधे-सादे आदर्शवादियों और सिद्धान्तवादियों का जमाना नहीं रहा।
बलहीन सिद्धान्तवादी मुँह ताकते रह जाते हैं, तथा बलशाली तिकड़मबाज का पौ-बारह होता है, अर्थात् वे मजे लूटते हैं।
प्रजातांत्रिक शासन-प्रणाली में जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्राप्त है। किन्तु, जनता क्या अपने मत का सही प्रयोग कर पाती है? कदापि नहीं।
उसका अधिकार बाहुबलियों द्वारा छीन लिया जाता है। सरकारी नौकरियों में मेधावी तथा योग्य अभ्यर्थियों की उपेक्षा कर प्रभुत्वसम्पन्न की नियुक्ति कर दी जाती है।
गरीब तथा शक्तिहीन जनता सताय जाती है; पैसा, पैरवी और पहुँच के बल पर प्रभुत्वशाली व्यक्ति चाँदी काटते हैं।
इन तथ्यों से यह सिद्ध होता है, कि जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत ही सर्वत्र चरितार्थ होती है।
आज जिसके पास बल है, दौलत है, ऊँची पहुँच है, वह गुलछर्रे उड़ा रहा है। जीवन का सुख भोग रहा है। जिस वस्तु की इच्छा करता है, वह उसे सहज ही उपलब्ध हो जाती है।
इसके विपरीत जो शक्तिहीन है, सम्पत्तिहीन है, वह अपनी छोटी-मोटी इच्छा की पूर्ति भी नहीं कर पाता है।
उसकी स्थिति गली के कुत्तों से भी बदतर होती है। एक साधनहीन और बलहीन की दयनीय दशा में द्रवित होकर किसी कवि ने सच ही कहा है —
"हम आह भी भरते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम,
वे कत्ल भी करते हैं, तो चर्चा नहीं होती।”