प्रस्तुत पंक्ति ' हँसते हुए मेरा अकेलापन' शीर्षक निबन्ध से ली गई है। इसके रचयिता मलयज हैं। लेखक का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने द्वारा यथार्थ का सृजन करता है और उसका कुछ हिस्सा वह दूसरों को दे देता है। यह दिया हुआ हिस्सा ही मांगा हुआ यथार्थ है। रचा हुआ यथार्थ वह यथार्थ है जिसे हम यथार्थ जीने के क्रम में रचते हैं। यथार्थ के इस व्यापार को संसार कहते हैं। भोगे हुए यथार्थ तथा रचे हुए यथार्थ में द्वन्द्वात्मक संबंध होता है। एक के होने से ही दूसरे का होना है। दोनों की जड़ें एक दूसरे में हैं तथा दोनों एक दूसरे को बनाते हैं।