भारत में रंगमंच की समृद्ध परंपरा का आधार संस्कृत रंगमंच को माना जाता है। प्राचीन भारत में नाटकों के 2 प्रकार थे।
- लोकधर्मी : दैनिक जीवन का यथार्थवादी चित्रण।
- नाट्यधर्मी : अत्यधिक प्रतीकों, परंपराओं द्वारा चित्रण। ।
ऐसी मान्यता है कि संस्कृत नाट्य की रचना इंद्र आदि देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने पाँचवें वेद के रूप में की है।
ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य (बोल), सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से शृंगार आदि रस लेकर नाट्य ग्रंथ की रचना की।
नाट्य ग्रंथ की रचना में शिव, पार्वती एवं विष्णु के सहयोग को भी स्वीकार किया गया है।
हालाँकि संस्कृत रंगमंच के विकसित स्वरूप का उल्लेख भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में मिलता है।
जिसकी रचना पहली सदी में की गई तथा इसे विश्व के प्राचीनतम नाट्यशास्त्र के रूप में मान्यता प्राप्त है।
भारत में शास्त्रीय संस्कृत नाटकों का वैभवकाल पहली सदी से लेकर 1000 ईस्वी तक माना गया है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
- संपूर्ण नाटक 5.7 कृत्यों में संपन्न होता था।
- अधिकांशतः शहरी जीवन पर केंद्रित होते थे।
- मुख्य विषयवस्तु-प्रेम एवं नायकवाद।
- संस्कृत रंगमंच शास्त्रबद्ध था जिसमें नाट्य प्रकारों रंगस्थल, अभिनय, मंच सज्जा एवं रंगोपकरणों के साथ ही शैली की भी परिभाषा निर्धारित थी।
- रस इसका केंद्रीय तत्त्व था। हालाँकि भास ने अपने नाटकों में इस शास्त्र सीमा का बार-बार उल्लंघन किया है।
- संस्कृत नाटकों के आख्यान प्रायः किसी प्रसिद्ध कृति से लिये जाते थे जिसमें नायक प्रायः राजर्षि, राजा, विद्वान, वीर या प्रख्यात वंश का कोई प्रतापी पुरुष होता था।
- ग्रीक ट्रैजडी की भाँति दुखात नाटकों की शास्त्रीय मनाही थी।
- क्लासिकल संस्कृत नाटकों का आरंभ विस्तृत पूजा एवं मंगलाचरण के साथ होता था।
- अभिनय के दौरान कलाकार मुखौटों का प्रयोग नहीं करते थे तथा मानवीय भावनाओं को चेहरे की भावभंगिमा, इशारों एवं डायलॉग द्वारा दर्शकों के सामने उकेरने का प्रयास किया जाता था।
- विभिन्न विषयों को प्रदर्शित करने हेतु यवनिका (पर्दो) का प्रयोग किया जाता था, ताकि नाटकों में सजीवता एवं गहराई लाई जा सके। 11वीं सदी तक (1000 ईस्वी) संस्कृत रंगमंच का अवसान होना शुरू हो गया।