आम तौर पर बागानमालिकों की फैक्ट्रियों के आस-पास स्थित गाँवों में नील की खेती करवाई जाती थी, कटाई के बाद नील के पौधों को कारखाने में स्थित हौद में पहुँचा दिया जाता था।
रंग बनाने के लिए 3 या 4 कुंडों की जरूरत पड़ती थी, प्रत्येक हौद का अलग काम होता था। नील के पौधों से पत्तियों को तोड़कर पहले एक कुंड में गर्म पानी में कई घंटों तक डुबोया जाता था।
इस हौद को किण्वन(Fermentation) या स्टीपर कुंड कहा जाता था, जब पौधे किण्वित हो जाते थे तो द्रव्य में बुलबुले उठने लगते थे। तब, सड़ी हुई पत्तियों को निकाल दिया जाता था।
इस द्रव्य को एक और हौद में छान लिया जाता था। दूसरा हौद पहले हौद के ठीक नीचे होता था। दूसरे हौद (बीटर वाट) में इस घोल को लगातार हिलाया जाता था और पैडलों से खंगाला जाता था।
जब वह द्रव्य हरा और उसके बाद नीला हो जाता था तो हौद में चूने का पानी डाला जाता था । धीरे-धीरे नील की पपड़ियाँ नीचे जम जाती थीं और ऊपर साफ द्रव्य निकल आता था।
द्रव्य को छानकर अलग कर लिया जाता था और नीचे जमी नील की गाद – नील की लुग्दी को दूसरे कुंड (निथारन कुंड) में डाल दिया जाता था।
इसके बाद उसे निचोड़कर बिक्री के लिए सुखा दिया जाता था । अंत में दबाकर साँचों में डाल दी गई नील की लुग्दी को काटकर मजदूर उन पर मुहर लगा देते थे, अब नील बिक्री के लिए पूर्णतः तैयारे हो जाता था ।