1973 में केशवानंद भारती केस में इस सवाल को उठाया गया था कि प्रस्तावना (Preamble) को संशोधित (Modified) किया जा सकता है।
1960 के बेयबाड़ी संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है, अतः विधायिका इसमें संशोधन नहीं कर सकती है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य विवाद में सर्वोच्च न्यायालय की 13 सदस्यीय पीठ ने यह निर्णय दिया कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है, अत: विधायिका इसमें संशोधन कर सकती है। परन्तु मूल विशेषताओं में संशोधन नहीं किया जाए।
केशवानंद भारती वाद में संविधान के मूल ढाँचे को परिभाषित किया गया।
प्रस्तावना को भारतीय संविधान का दर्शन कहा जाता है।
एन.ए. पालकीवाला ने प्रस्तावना को 'संविधान का परिचय पत्र' कहा है।