19वीं सदी के मध्य तक आते-आते भारत के अनेक मनीषी बेचैनी का अनुभव करने लगे। इस समय प्रमुख धर्म सुधार आन्दोलनों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने प्रेरणा हिन्दू धर्म के अन्दर से ग्रहण की अर्थात् इन सुधार आन्दोलनों के प्रणेता ईसाई या अन्य धर्म के कार्यकलापों से प्रभावित नहीं थे। उनकी प्रेरणा का आधार पूरी तरह भारतीय था। स्वामी दयानंद सरस्वती एवं विवेकानन्द द्वारा चलाए गए आन्दोलन मुख्यतः विरजानंद ( वृजानन्द ) एवं रामकृष्ण परमहंस द्वारा प्रेरित थे। मूलशंकर जो दयानंद (1824-83 ई०) के नाम से प्रसिद्ध हुए, का जन्म गुजरात में मौरखी रियासत के तंकरा परगने के जिवपुर गाँव के ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता स्वयं वेदों के ज्ञाता थे अतः मूलशंकर को वैदिक साहित्य, न्यायदर्शन की शिक्षा दी गई। 21 वर्ष की अवस्था
में सत्य की खोज में मूलशंकर ने गृह त्याग दिया। 19 वर्ष तक वे भ्रमण करते रहे। इस दौरान उन्होंने विविध ग्रंथों का अध्ययन किया। मथुरा में विरजानंद जो वैदिक साहित्य, भाषा, दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान थे, से उन्होंने 1859 में वेदों का व्याख्यात्मक ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी विरजानंद ने विदा लेते समय दयानंद ने अपने गुरु को वचन दिया कि वे पौराणिक हिन्दू धर्म की कुरीतियों, अन्धविश्वासों और पाखण्डों का खण्डन कर वैदिक धर्म व संस्कृति की स्थापना का प्रयास करेंगे। 1869 में दयानंद का कलकत्ता में केशवचन्द सेन से भी विचार विमर्श हुआ था। उन्होंने 1874 में सत्यार्थ प्रकाश की रचना की और आगरा से अपने धर्म प्रचार का कार्य 1863 में प्रारम्भ किया। लेकिन सर्वप्रथम आर्य समाज की स्थापना बम्बई (मुम्बई) में अप्रैल 1875 में की गई। जून 1877 में लाहौर में भी आर्य समाज की एक शाखा प्रारम्भ की गई और कालान्तर में इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र लाहौर ही बन गया।
स्वामी जी का विश्वास था कि स्वार्थी व अज्ञानी पुजारियों ने हिन्दू धर्म को विकृत किया है। मिथ्या ज्ञान के लिए वे पुराणों को दोषी ठहराते थे जिनमें हिन्दू धर्म को वास्तविकता से हटाकर असत्य की प्रस्तुति हुई। स्वामी जी ने वेदों को सर्वोच्च माना और उन्हें (वेदों को) अमोघ तथा ईश्वर प्रेरित श्रुति कहा। उनके अनुसार समस्त ज्ञान वेदों में निहित है। वेद विरूद्ध धार्मिक विचारों को उन्होंने अस्वीकार करने का आह्वान किया। अपनी कृति सत्यार्थ प्रकाश में विभिन्न शास्त्रों में वर्णित विषय की असत्यता प्रदर्शित कर वेदों के परिप्रेक्ष्य में सत्य को प्रकट किया। उनका मत था कि वेदों में निहित सत्य समूची विश्व मानवता के कल्याण के लिए है। अतः उन्होंने हिन्दुओं को अन्य समुदायों के जनमानस में सत्य का प्रसार करने तथा शुद्धि के माध्यम से धर्म परिवर्तन कराने के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी के योगदान को तीन प्रकार से वर्णित किया जा सकता है। प्रथम ज्ञान उपासना सम्बन्धी नियम और आचरण दूसरे हिन्दू समाज में सुधार एवं तीसरे विदेशी प्रभुत्व से भारतीय संस्कृति की रक्षा।
उन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना के दौरान 10 सिद्धान्तों का निरुपण किया(1) ईश्वर ही समस्त ज्ञान का कारण और ज्ञेय है। (2) ईश्वर अजन्मा, निर्विकार, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अजर-अमर और अद्वितीय है। (3) वेद ही समस्त ज्ञान के स्रोत हैं अतः आर्यों का परम धर्म वेदों का अध्ययन है। (4) प्रत्येक व्यक्ति को सदैव सत्य ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए तत्पर रहना चाहिए | (5) वेदों में निहित धर्मानुसार विषय का विचार करने के उपरान्त ही कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए। (6) सबसे बड़ा कर्म परोपकार है यही समाज का सबसे बड़ा उद्देश्य है अतः व्यक्ति को संसार में उपकार करना चाहिए। (7) ज्ञान का प्रसार व अज्ञानता को दूर करने के लिए प्रयत्न करना । (8) अपनी उन्नति के साथ-साथ व्यक्ति को सबकी उन्नति के लिए प्रयास करने चाहिए। (9) निराकार ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए। (10) स्वामी जी ने शुद्धि हेतु यज्ञों के आयोजन पर बल दिया जिससे वायुमण्डल भी स्वच्छ हो सके तथा ज्ञान का प्रसार हो ।