जिस प्रकार पहचान बनाए रखने के लिए अपेक्षाकृत नए अप्रवासी भारतीय अपने पूर्वजों की भाषा को सँजोए हैं, उसी प्रकार अन्य समुदाय के लोगों ने भी अपनी मातृभाषा को बचा रखा है।
नागा समुदाय के विभिन्न उपसमुदायों की पहचान अपनी-अपनी अलग भाषा से की जा सकती है।
तिब्बती-बर्मन समूह की एक भाषा बोडो को लें, जो 1981 की जनगणना के अनुसार असम, मेघालय और पश्चिम बंगाल में 28,619 लोगों द्वारा बोली जाती है।
इसी समूह की दो अन्य भाषाएँ हैं-दोआरी (9, 103) और करबी (मिकिर) (12,600)। ये सभी भाषाएँ बोडो समुदाय के व्यक्ति अपने समुदाय के अंतर्गत सम्पर्क के लिए प्रयोग में लाते हैं।
दूसरे समुदायों से सम्पर्क सूत्र बनाए रखने के लिए ये अन्य भाषाओं का प्रयोग करते हैं।
ये सभी उपजातियाँ अपने आप पर और अपनी भाषा पर गर्व करती है और ऐसा समझती हैं कि अपनी पहचान के लिए भाषा को जीवन्त बनाए रखना आवश्यक है।
स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भाषाएँ समाज में पहचान का माध्यम है।