रूढ़िवादी और कट्टर चर्च को भय सता रहा था कि पुस्तकें नई धार्मिक विचारधारा का प्रसार कर चर्च की सत्ता को चुनौती दे रही हैं।
इसे रोकने के लिए चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तकविक्रेताओं पर प्रतिबंध लगाया। इसका उद्देश्य धार्मिक स्वरूप को चुनौती देनेवाली सामग्री का प्रकाशन रोकना था।
अंततः सन् 1558 ई० से चर्च प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखने लगा। जिससे उनका पुनर्मुद्रण और वितरण नहीं हो सके।