दयानन्द सरस्वती (Dayanand Saraswati) (मूल शंकर) ने 1875 ई. में बंबई में आर्य समाज (Arya Samaj) की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः स्थापना करना था।
आर्य समाज आंदोलन का प्रसार प्रायः पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। 1877 ई. में आर्य समाज का मुख्यालय लाहौर में स्थापित किया गया जिसके उपरांत आर्य समाज का अधिक प्रचार हुआ।
शुद्ध वैदिक परंपरा में विश्वास के चलते स्वामी जी ने पुनः वेदों की ओर चलो का नारा दिया।
स्वामी दयानन्द का उद्देश्य था कि भारत को धार्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय रूप से एक कर दिया जाए। धार्मिक क्षेत्र में वह मूर्ति पूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्रद्धा, तंत्र, मंत्र तथा झूठे कर्मकांडों को स्वीकार नहीं करते थे।
वह वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे तथा उपनिषद काल तक के साहित्य को स्वीकार करते थे। आर्य समाज के नियम तथा सिद्धांत सबसे पहले बंबई में गठित किए गए। पुनः उसे 1877 ई. में लाहौर में संपादित कर एक निश्चित रूप दिया गया।
आर्य समाज का प्रचार-प्रसार पंजाब में अत्यधिक सफल रहा तथा कुछ सीमा तक उत्तर-प्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान में भी इसे सफलता मिली।
महात्मा हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय तथा स्वामी श्रद्धानन्द इसके विशिष्ट कार्यकर्ताओं में से थे।
1892-93 ई. में आर्य समाज दो गुटों में बंट गया। एक गुट पाश्चात्य शिक्षा का समर्थक था, जबकि दूसरा गुट पाश्चात्य शिक्षा का विरोधी।
पाश्चात्य शिक्षा के विरोधियों में स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराज और मुंशीराम प्रमुख थे। इन लोगों ने वर्ष 1902 में गुरुकुल की स्थापना की।
पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में लाला लाजपत राय तथा हंसराज प्रमुख थे। इन लोगों ने दयानन्द एंग्लो कॉलेज की स्थापना की।