स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के नेताओं ने समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए गंभीरता से विचार करना शुरू किया। उन्होंने देखा कि भारतीय समाज में अनेक ऐसे देश की मुख्य धारा से जोड़ना अत्यन्त आवश्यक है। अतः इस दिशा में उन्होंने सबसे पहले उनके पहचान के लिए एक आयोग का गठन किया। इस आयोग से प्राप्त सूचना के आधार पर उन्होंने समुदाय आरक्षण नीति को अपनाने की जरूरत महसूस की।
अनुच्छेद 330 और 332 के अधीन अनुसूचित जाति तथा जनजाति के सदस्यों के लिए लोकसभा तथा राज्यविधान सभाओं में स्थानों का आरक्षण किया गया है। यह आरक्षण इन जातियों की संख्या के आधार पर होता है तथा इनके लिए आरक्षित स्थानों में भी परिवर्तन होता रहता है। वर्तमान समय में लोकसभा की 543 सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए 79 तथा अनुसूचित जनजाति के लिए 42 स्थान आरक्षित हैं। इसी तरह राज्यविधान सभाओं के कुल 4091 स्थानों में से 1080 स्थान अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं।
1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने दलितों, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजातियों की लोगों की पहचान करने व उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने के उद्देश्य से आरक्षण की सीमा तय करने के लिए वी.पी. मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है। मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट जनता पार्टी के टूटने के बाद इन्दिरा गांधी सरकार के समय पेश किया जिसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। 1989 में जनता दल की सरकार बनने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह इस रिपोर्ट को 7 अगस्त 1990 को लागू कर दिया। इस रिपोर्ट के आधार पर पिछड़ों, दलितों, अनुसूचित जातियों एवं जन जातियों को 50% आरक्षण दिया जाने लगा। वर्तमान में आरक्षण नीति के तहत महिलाओं, दलितों, पिछड़ों एवं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को सरकारी नौकरियों, विधानसभा एवं लोकसभा की सीटों के लिए आरक्षण प्राप्त है।