श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जातिप्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। इस प्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं है।
व्यक्तिगत रुचि और भावना को इसमें महत्त्व नहीं दिया जाता। इस प्रथा में व्यक्ति को अपनी जाति के पारंपरिक पेशे से जुड़ने की बाध्यता होती है।