Ans जैव तकनीक, जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें सजीवों अथवा उनसे प्राप्त पदार्थों को उद्योग, कृषि, चिकित्सा आदि में उपयोग के लिए विकसित किया जा रहा है। जैव तकनीक को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है - " जैवरसायन, सूक्ष्म जीव विज्ञान, रासायनिक अभियांत्रिकी का पूर्ण प्रयोग करते हुए सूक्ष्म जीवों और ऊतक संवर्धन से मानव कल्याण हेतु विभिन्न तकनीकी का प्रयोग करना ही जैव तकनीकी है। प्राचीन काल से ही भारत में जैव-तकनीक का उपयोग होता रहा है। जैसे- सिरका बनाना, दूध से दही बनाना इत्यादि । किन्तु 1970 के आसपास विकसित ऊतक संवर्धन विधि से जैव तकनीक में क्रांति आ गई। आज बायोगैस, ऊतक संवर्धन, परखनली शिशु, विभिन्न रोगों के लिए टीके, जीन-अभियांत्रिकी, जैव-उर्वरक, भ्रूण प्रतिरोपण आदि जैव तकनीकी के द्वारा मानव जीवन को अधिक सुगम बना दिया गया है।
जैव प्रौद्योगिकी से होने वाले लाभ :
(a) कृषि के क्षेत्र में : जैव प्रौद्योगिकी के द्वारा फसलों को उन्नत बनाकर उत्पादन बढ़ाया जा रहा है। नाइट्रोजन- स्थिरीकरण केवल राइजोबियम नामक जीवाणु से होता है, क्योंकि इसमें निफ- जीन पाया जाता है। यह जीवाणु द्विवीज पत्री के जड़ों में पाया जाता है। यदि एक बीजपत्री जैसे- गेहूँ, धान, मक्का, ज्वार, बाजरा इत्यादि में निफ जीन का प्रत्यारोपण कर दिया जाय तो नाइट्रोजन की समस्या नहीं रहेगी।
कुछ पौधों जैसे-गेहूँ, धान, आलू इत्यादि जिन्हें C3 पौधे कहते हैं इनकी प्रकाश संश्लेषण क्षमता C4 पौधे (जैसे–मक्का, गन्ना इत्यादि) से कम होती है। यदि C4 पौधों के जीन को C3 पौधों में प्रत्यारोपित कर देने से उनकी प्रकाश संश्लेषण क्षमता बढ़ जायेगी। फलस्वरूप अनाजरोग प्रतिरोधी प्रजाति बनाकर फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।का उत्पादन बढ़ जायेगा।
(b) चिकित्सा के क्षेत्र में : इन्सुलिन एक पालीपेप्टाइड श्रृंखला है, जो अग्नाशय में आइसलेट आफ लैगर हैंस की बीटा कोशिका से निकलता है। इन्सुलिन रूधिर में ग्लूकोज की मात्रा का निर्धारण करता है । इन्सुलिन की कमी से डायबिटीज नामक रोग होता है। इन्सुलिन वाले डी.एन.ए. (जीन) को ई. कोलाई गेलेक्टोसिडेस जीन के साथ मिलकर प्लज्मिड PBR 322 में स्थानान्तरित करके मानव इन्सुलिन का निर्माण किया जाता है
आजकल एन्टीबायोटिक दवायें संक्रामक बीमारियों के उपचार के लिए बड़े पैमाने पर प्रयोग में लाई जा रही है। ये संक्रामक बीमारियाँ जीवाणुओं या विषाणुओं फैलती हैं। इन संक्रामक रोगों के उपचार के लिए सभी एन्टीबायोटिक जीवाणुओं द्वारा ही तैयार की जाती है।
उद्योग के क्षेत्र में : आजकल उद्योगों में भी जैव-तकनीक ाइम, औषधि, खाद्य पदार्थ, प्लास्टिक इत्यादि जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से सफलतापूर्वक बनाये जा रहे हैं। इन तकनीक के द्वारा इन उत्पादों की उत्पादन लागत घटती जा रही है तथा प्रदूषण रहित होती है।
जैव-प्रौद्योगिकी के द्वारा सूक्ष्मजीवों की सहायता से विटामिन का उत्पादन किया जा रहा है। यूग्लिना ग्नेसिलिस से विटामिन ई बनाया जाता है।
ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में : जीव जन्तुओं से सड़े- गले अवशेषों से जैव- ऊर्जा प्राप्त की जा रही है। इनकी उत्पादन लागत काफी कम है तथा यह विधि हमारे देश के ग्रामीण परिवेश के अनुरूप है।