प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के 'जनतंत्र का जन्म' काव्य-पाठ से ली है।
इन पंक्तियों में कवि के कहने का आशय है कि जनता की हुँकार से, जनता की ललकार से राजमहलों की नींवें उखड़ जाती हैं।
मूल भाव है कि जनता और जनतंत्र के आगे राजतंत्र का अब कोई मोल नहीं।
जनता की साँसों के बल से राजमुकुट हवा में उड़ जाते हैं।गूढ़ाय हुआ कि जुनता ही राजा को मान्यता प्रदान करती है और वही राजा का बहिष्कार या समाप्त भी करती है।
जन-पथ को कौन अबतक रोक सकता है ? समय में वह ताव या शकित कहाँ जो जनता की राह को रोक सके।
महाकारवाँ के भय से समय भी दुबक जाता है। जनता जैसा चाहती है, समय भी वैसी ही करवट बदल लेता है जनता के मनोनुकूल समय बन जाता है।
यहाँ मूल भाव यह है कि किसी भी तंत्र की नियामक शक्ति जनता है। उसका महत्व सर्वोपरि है।