हमारे मस्तिष्क में जो अवधारणाएँ बनती है वो अमूर्तीकरण के माध्यम से बनती है। अमूर्तीकरण हमारे मस्तिष्क की वह विशेष क्षमता है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभवों के कुछ सामान्य गुणों को छाँट लेते हैं और इनके आधार पर उन्हें वर्गीकृत करते जाते हैं।
दूसरे शब्दों मेंअमूर्तीकरण (Demateriasation) का अर्थ सांसारिक वस्तुओं से अलगाव से लिया जाता है। यहाँ दो चीजें
- सामान्यीकरण।
- वर्गीकरण।
अमूर्तीकरण की प्रक्रिया को उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैंबच्चे के सामने 4 गिलास रखे हैं उसने पहली बार 1 गिलास देखा फिर 2 देखा, फिर 3 और फिर 4 गिलास देखा। तो हर बार उसके मस्तिष्क में बनने वाला बिम्ब (इन्द्रिय-संप्रेषण) अलग-अलग हागा। यहाँ उल्लेखनीय है कि यदि किसी एक ही गिलास को एक बार से ज्यादा बार देख रहे हैं तो भी बिम्ब भिन्न-भिन्न ही बनेंगे। दरअसल वस्तु से हमारी दूरी, देखने का कोण, प्रकाश की स्थिति आदि हमेशा एक जैसी नहीं होती, अतः विभिन्न परिस्थितियों में देखने पर एक ही वस्तु के बिम्ब भी भिन्न-भिन्न बनते हैं।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि हम सबके अनुभव एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। हमारा मस्तिष्क एक ही वस्तु के इन भिन्न-भिन्न बिम्बों में से कुछ समान गुणों को अलग कर लेता है अर्थात् अमूर्तीकरण करता है और इन गुणों की एक अमूर्त छवि बनाता है, यह छवि 'अमूर्तन' कहलाती है। अमूर्तन का यह पहला स्तर है अमूर्तन के स्तरों को पार करते-करते सामान्यगुण इन्द्रियगत कम और उपयोग सम्मत अधिक होने लगते हैं।
इंसानी मस्तिष्क की कुछ जन्मजात क्षमताएँ हैं जिनके कारण हम सीख पाते हैं। यह हमारे इन्द्रिय-संप्रेषणों को 'अमूर्तनों' में परिवर्तित कर इन्हें समान गुणों के आधार पर वर्गीकृत करता जाता है।