ग्राम-गीत क्रमशः सभ्य जीवन के अनुक्रम से कला-गीत के रूप में विकसित हो गया है, जिसका संस्कार अब तक वर्तमान है। ग्राम-गीत भी सर्वप्रथम व्यक्तिगत उच्छ्वास और वेदना को लेकर उच्च स्वर में गाया गया; किन्तु इन भावनाओं ने समूह का इतना प्रतिनिधित्व किया कि उनकी सारी व्यक्तिगत सत्ता समूह में ही लुप्त हो गई और इस प्रकार उसे लोक-गीत की संज्ञा प्राप्त हुई।
ग्राम-गीत को कला-गीत के रूप में आते-आते कुछ समय तो लगा ही, पर उसमें सबसे मुख्य बात यह रही कि कला-गीत अपनी रूढ़ियाँ बनाकर चले, कला-गीत का क्षेत्र भी जितना व्यापक तथा विस्तृत हुआ और उसके अनुसार यदि उसमें कुछ सीमा तक शास्त्रीय रूढिप्रियता न रहती, तो उसके समरूपत्व का निर्वाह भी संभव न होता।
ग्राम-गीत की रचना में जिस प्रकृति और संकल्प का विधान था, कला-गीत में उसकी उपेक्षा करना समुचित न माना गया। ग्राम-गीत से कला-गीत के परिवर्तन में एक बात उल्लेखनीय रही कि ग्राम-गीत में रचना की जो प्रकृति स्त्रैण थी, वह कला-गीत में आकर कुछ पौरुषपूर्ण हो गई। ग्राम-गीत अत्यधिक संस्कृत और परिष्कृत होकर कला - गीत बन गया।