यह छन्द शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'उषा' से उद्धृत है। इस कविता में उषा काल का चित्र उकेरा गया है। यहाँ दो तरह का विम्ब दिखाई पड़ता है। पहला जीवन का विम्ब है जिसमें सुबह चौका लीपने के बाद गृहिणी सिलवट पर मशाला पीसती है और केसर पीसने के बाद सिलवट धुल जाने के बाद भी उसमें थोड़ी देर तक लाली बनी रहती है। दूसरा यह कि समस्त दिगन्त सूर्य की लाली से भर गया है जो लगता है कि बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से धुल गई हो। आकाश की थोड़ी लालिमा ऐसी लगती है जैसे जिस समय सूर्योदय की शुरुआत हुई हो।