सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम चौथी पंचवर्षीय योजना में प्रारंभ की गई और पाँचवी योजना में इसे विस्तृत किया गया।
इसका उद्देश्य सूखा प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाना और सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए उत्पादन के साधनों को विकसित करना था।
इसके अतिरिक्त रोजगार के अवसर को बढ़ाने के लिए श्रम प्रधान सार्वजनिक निर्माण कार्य, सिंचाई योजनाएँ, भूमि विकास, वन रोपण, चारागाह विकास, बिजली उत्पादन, सड़क निर्माण, विपणन, ऋण सुविधाओं और सेवाओं के विकास पर जोर दिया गया।
1967 में योजना आयोग (Planning Commission) ने 67 जिलों को सूखा संभावी जिले के रूप में पहचाना और सिंचाई आयोग ने 1972 में 30% सिंचित क्षेत्र को मापदंड मानकर सूखा संभावी क्षेत्रों का सीमांकन किया।
इन क्षेत्रों में मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, प० मध्य प्रदेश, मराठबाड़ा (महाराष्ट्र), रायलसीमा और तेलंगाना (आंध्रप्रदेश), कर्नाटक पठार और तमिलनाडु की उच्च भूमि और आंतरिक भाग सम्मिलित हैं।
1981 में की गई इस योजना की समीक्षा से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह कार्यक्रम कृषि और संबंधित सेक्टर पर विशेष ध्यान देता है और सीमांत क्षेत्र में कृषि के विस्तार से पर्यावरण असंतुलन पैदा हो रहा है।
कृषि जलवायु नियोजन कार्यक्रम- कृषि जलवायु नियोजन कृषि विकास की प्रादेशिक योजना है, जिसे योजना आयोग ने प्रदेश की दृष्टि से संतुलित कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि तथा देश में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए शुरू की।
इस योजना का उद्देश्य है-सतत् पोषणीय कृषि विकास के लिए भूमि विकास और जल संचय की कार्य नीति तैयार करना, विभिन्न प्रदेशों की कृषि-जलवायु दशाओं के अनुसार फसल और गैर-फसल आधारित विकास को सुनिश्चित करना, सार्वजनिक और निजी निवेश के द्वारा भूमि जल संचय की अवसंरचना का विकास और कृषि जलवायु प्रदेशों/उप-प्रदेशों के सतत विकास के लिए संस्थागत सहायता, विपणन, कृषि प्रसंस्करण और अवसंरचना उपलब्ध कराना।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूरे देश को उच्चावच और जलवायु के आधार पर 15 बड़े प्रदेशों और उच्चावच तथा वर्तमान फसल प्रतिरूपों के आधार पर 127 उपप्रदेशों में विभाजित किया गया।
प्रशासन की सुविधा के लिए जिलों को अंतिम रूप में योजना की इकाई के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। इन दोनों कार्यक्रमों से देश में शुष्क भूमि कृषि विकास में सहायता मिली।