हार-जीत अशोक वाजपेयी रचित गद्य कविता है। गद्य कविता छन्दोवद्ध नहीं होती है और उसमें छन्द मुक्त कविताओं की तरह पंक्तियों को उपर नीचे लिखा भी नहीं जाता है। यह गद्य में लिखा जाता है और काव्यत्व के गुणों से सम्पन्न होने के कारण गद्य कविता कहलाता है। गद्य कविता की सबसे बड़ी विशेषता होती है वाक्यों के गठन में लय का उपयोग जो पूरे कथन को एक दूसरे से आबद्ध कर एक समग्र रूप प्रदान करता है।
संसार में जितनी लड़ाइयाँ हुई हैं, उनको देखने से स्पष्ट है कि वे राजाओं अथवा राष्ट्र शासकों की महत्वाकांक्षा, स्वार्थपरता और विस्तारवादी नीति का परिणाम होती है। इन लड़ाइयों में सेना लड़ती है मगर लड़ाई क्यों लड़ी जा रही है इसकी जानकारी न सैनिकों को होती है और न नागरिकों को। फिर भी सेना नायकों के आदेश पर बिना समझे बूझे लड़ना अगर सैनिकों के लिए नियति है तो बिना जाने और समझे जीत की खुशी मनाना नागरिकों का दायित्व है। जीत का जो जश्न मनाया जाता है उसमें सभी सम्मिलित होते हैं मगर किसी को न तो मारे गए
सैनिकों के बारे में जानने का हक होता है और न युद्ध के औचित्य पर चर्चा करने का अधिकार होता है।
ऐसे ही कुहासा भरे उत्सव का वर्णन इस रचना में किया गया है। लोग उत्सव मना रहे हैं, सफाई हो रही है, रोशनी की जा रही है तथा नाच-गाकर हर्ष व्यक्त करने के लिए किया जा रहा है। नागरिकों को केवल इतना पता है कि सेना और शासक विजयी होकर लौटे हैं और इसकी खुशी मनानी है, उन्हें नहीं पता है कि लड़ाई कहाँ लड़ी गई है, किस कारण लड़ाई हुई, कितनी सेना गई और कितने सैनिक मारे गये ? उन्हें यह भी पता नहीं है कि उनकी विजय कैसे हुई है और उन्हें इस विजय की खुशी मनानी चाहिए या नहीं। जो लोग जानते हैं उन्हें भी सच कहने का अधिकार नहीं है।
कुल मिलाकर यह एक भेड़ियाधसान प्रवृत्ति है जहाँ शासक हाँकता है और जनता हॉकी जाती है। उसे प्रश्न पूछने का हक नहीं है। केवल आज्ञा पालन करना उसका धर्म है। कवि ने युद्धों के विषय में जनता को अंधेरे में रखे जाने और उसे हॉकने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है। सारतः यह कविता शासक वर्ग, राजनीति, युद्ध, इतिहास और आम आदमी को लेकर अनेक प्रश्न उठाती है।