ज्ञानेन्द्रपति द्वारा रचित गाँव का घर कविता में गांव की संस्कृति शहरी संस्कृति से बुरी तरह प्रभावित हुआ है, इसकी चर्चा की गई है।
कवि ने गाँवों की वर्तमान स्थिति का वर्णन करने के क्रम में उपरोक्त बातें कहीं हैं। हमारे गाँवों की अतीत में गौरवशाली परंपरा रही है। सौहार्द, बंधुत्व एवं करूणा की मृतमयी धारा यहाँ प्रवाहित होती थी। दुर्भाग्य से आज वहीं गाँव जड़ता एवं निष्क्रियता के शिकार हो गए हैं इनकी वर्तमान स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है। अशिक्षा एवं अंधविश्वास के कारण परस्पर विवाद में उलझे हुए तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से त्रस्त हैं। शहर के अस्पताल तथा अदालतें इसकी साक्षी हैं। इसी संदर्भ में कवि विचलित होते हुए अपने विचार प्रकट करते हैं।
“लीलने वाले मुँह खोले शहर में बुलाते हैं बस
अदालतों और अस्पतालों के फैले-फैले भी रूंधते-गँधाते अमित्र परिवार"
कवि के कहने का आशय यह प्रतीत होता है कि शहर के अस्पतालों में गाँव के लोग रोगमुक्त होने के लिए इलाज कराने आते हैं। इसी प्रकार अदालतों में आपसी विवाद में उलझकर अपने मुकदमों के संबंध में आते हैं। ऐसा लगता है कि इन निरीह ग्रामीणों को निगल जाने के लिए नगरों के अस्पतालों तथा अदालतों का शत्रुवत परिसर मुँह खोल कर खड़ा है। इसका परिणाम ग्रामीण जनता की त्रासदी है। गाँव के लोगों की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति चरमरा गई अतः उनके घरों की दशा दयनीय हो गई हैं।
कवि ने संभवत: इसी संदर्भ में कहा है, "कि जिन बुलौओं से गाँव के घर की रीढ़ झुरझुराती है" अर्थात् शहर के अस्पतालों तथा अदालतों द्वारा वहाँ आने का न्योता देने से उन गाँवों की रीढ़ झुरझुराती है। कवि की अपने अनुभव के आधार पर ऐसी मान्यता है कि गाँववालों का अदालतों तथा अस्पतालों का अपनी समस्या के समाधान में चक्कर लगाना दुःखद है। इसके कारण गाँव के घर की रीढ़ झुरझुरा गई है। गाँव में रहने वालों की स्थिति जीर्ण-शीर्ण हो गई है।