केवल पढ़ना-लिखना सिखा देना पहली कक्षा के शिक्षण का उद्देश्य नहीं हो सकता। पहली कक्षा तो बच्चा के स्कूली जीवन की बुनियाद है। यहीं से बच्चे स्कूली पढ़ाई तथा अनुभवों के बारे में अपनी पसंद या राय बनाते हैं। यदि कोई काम बच्चों की पसंद या उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं, तो वह निरर्थक है।
बस मुझे समझ में आ गया मुझे कैसे आगे बढ़ना है। मुझे वे गतिविधियाँ या काम सोचने या खोजने होंगे जो मेरे लिए ही नहीं बच्चों के लिए भी आनन्ददायक तथा सार्थक हो, तभी बच्चों की जिज्ञासा को संतुष्ट किया जा सकेगा।
आखिर वह दिन आ पहुँचा जब मुझे पहली कक्षा के बच्चों से रू-ब-रू होने का सौभाग्य मिला, कुछ बच्चे उदासीन से लगे। कुछ उत्सुकता से मेरी ओर देख रहे थे। कुछ की आँखों में डर भी रहा होगा शायद। मैंने बच्चों से बातचीत शुरू की। अपना परिचय दिया, बच्चों से परिचय लिया । धीरे-धीरे बातचीत को उनकी पसंद-नापसंद की ओर मोड़ दिया। अवसर मिलते ही एक सवाल मैंने हवा में छोड़ दिया, “अच्छा ये तो बताओ, खाने में कौन-सा फल सबसे अच्छा लगा है ?” तुरन्त जवाबों की रिमझिम होने लगी। “आम, केला, अमरूद, सेब आदि ।” कुछ ने हलवा, आइसक्रीम आदि का नाम भी लिया । जो बच्चे चुप थे उनसे मैंने स्वयं पूछ लिया। आख़िरकार यह बात उभरकर आयी कि ‘आम' सबसे अधिक बच्चों को अच्छा लगता है। मैंने सुझाव दिया “चलो आम का चित्र बनाते हैं।”
जब मैंने ब्लैक बोर्ड पर आम बनाने का प्रस्ताव रखा तो कुछ बच्चे तुरन्त तैयार हो गए। ब्लैक बोर्ड पर तरह-तरह के आम बन गए। फिर मैंने अगला सुझाव दिया, “जब आप सब आम बना लो, तो आम के नीचे उसका नाम भी लिख देना।"
“हमें तो लिखना नहीं आता", एक-दो बच्चों ने बताया। "कोई बात नहीं। मैं बता देता हूँ”, यह कहकर मैंने ब्लैक बोर्ड पर बने आमों के नीचे 'आम' लिखा और कहा कि ब्लैक बोर्ड पर से देखकर आम का नाम लिखा जा सकता है। सभी बच्चों के चेहरों का तनाव गायब हो गया । मेरा उद्देश्य केवल ‘आम' शब्द लिखवाना नहीं था । इस काम से यह अपेक्षा बिल्कुल नहीं थी कि बच्चे बिल्कुल सुडौल अक्षरों में सही-सही 'आम' लिख देंगे । पर इसके पीछे मेरी मंशा यह थी कि बच्चों को इस बात का एहसास हो कि लिखे हुए शब्द का अर्थ होता है और बोले जाने वाले तथा लिखे जाने वाले 'चित्र' में कुछ सम्बन्ध होता है। जो शब्द या चित्र बच्चा पहली बार लिखे या बनाए, वह बच्चों की पसंद का हो, उनके लिए उसका अस्तित्व तथा महत्व हो।