भाषा-शिक्षण का आधार बच्चों की भाषा ही होनी चाहिए। इससे शिक्षा में वृद्धि होती है।
शिक्षक व बालक के बीच समन्वय स्थापित होता है।
बालक बड़ी तीव्र गति से सीखता है । वह जिस भाषा को जानता है उसी भाषा का प्रयोग स्कूल में होता है तो उस बालक को अपने समाज व स्कूल के वातावरण में कोई बदलाव नहीं लगता है, जब वह भिन्नता नहीं पाता है बल्कि समाज व स्कूल में एकरूपता पाता है, तो वह दुगुने उत्साह से सीखता हैं ।
जबकि वर्तमान में ठीक इसके विपरीत हो रहा है। एक बालक घर व समाज में छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग करता है मगर स्कूल में हिन्दी का प्रयोग किया जाता है इससे प्रारंभिक दौर में बच्चा स्कूल के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाता है।
उदाहरण के लिए हिन्दी में 'क' वर्णमाला से कबूतर बनता है मगर बालक उस कबूतर को परेवा के नाम से जानता है, यहीं से बालक शिक्षा के प्रारंभिक दौर से ही विरोधाभास का शिकार हो जाता है जिससे उसके सीखने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है।
अतः उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि "भाषा - शिक्षण का आधार बच्चों की भाषा होनी चाहिए।"