बात-चीत शीर्षक निबन्ध से गृहीत इन पंक्तियों में मन की भीतरी वृत्तियों की विशेषता का उल्लेख बालकृष्ण भट्ट जी ने किया है। मन को लेखक ने दर्पण माना है। यह दर्पण की तरह ही ग्रहणशील होता है। दर्पण के सामने जो भी रख दो उसका बिम्ब बन जायेगा। वह अच्छे-बुरे, अनुकूल प्रतिकूल का भेद नहीं करता। वैसे ही मन उस प्रपंच पूर्ण संसार के लोगों का जैसा जैसा व्यवहार देखता है वैसा वैसा ही ग्रहण करता चलता है। इससे व्यक्ति को संसार के वास्तविक रूप का ज्ञान हो जाता है, लोगों के असली-नकली व्यवहारों का पता चलता रहता है। व्यक्ति प्रपंच का शिकार होने से बच जाता है। मन की वृत्तियों के बदलते रंगों के साथ संसार में घटित सारे व्यापारों का सही अनुभव कर पाना कठिन नहीं है।