ओ सदानीरा की प्रस्तुत पंक्तियों में जगदीशचन्द्र माथुर ने मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्ति एवं दूषित मानसिकता का वर्णन किया है। एक तरफ मनुष्य जंगल काटे जा रहा है, खेतों को, पशु, पक्षियों आदि को नष्ट कर रहा है। नदियों पर बाँध बनाकर उसे नष्ट कर रहा है तो दूसरी ओर धर्मान्ध मानव गंगा को मइया कहता है पर अपने घर की नाली, कूड़ा-करकट पूजन सामग्री जो प्रदूषण फैलाते हैं गंगा नदी में प्रवाहित करता है। इस प्रकार दोनों इस प्रकृति को नष्ट करने में लगे हैं। इसलिए कहा जाता है कि वसुंधरा भोगी मानव और धर्मान्ध मानव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।