भारत (Bharat) जैसे कृषि प्रधान देश के लिए भू-संसाधन की महत्ता अधिक है, किन्तु देश के भू-संसाधन अनेक पर्यावरणीय समस्याओं से भरे हैं।
जिनमें कृषि भूमि की गुणवत्ता का निम्नीकरण, प्राकृतिक आपदा, मिट्टी अपरदन, जल जमाव, लवणीकरण इत्यादि मुख्य हैं।
इन समस्याओं का समाधान करके कृषि का विकास किया जा सकता है।
i. कृषियोग्य भूमि का निम्नीकरण (Degradation) : जनसंख्या की अधिकता के कारण भारतीय कृषि भूमि का लगातार उपयोग हो रहा है, जिससे इसकी गुणवत्ता का ह्रास हुआ है और उर्वरता कम हो गई है।
इसका समाधान फसल बदलकर और कुछ समय के लिए खेत को परती छोड़कर किया जा सकता है।
ii. प्राकृतिक आपदा (Natural Calamity) : भारतीय कृषि क्षेत्र का एक तिहाई भाग ही सिंचित है। इतने बड़े देश में एक ओर कुछ क्षेत्र वर्षाऋतु में बाढ़ से प्रभावित रहते हैं, तो दूसरे क्षेत्र सूखा ग्रस्त।
सूखा और बाढ़ भारतीय कृषि के जुड़वा संकट हैं। उचित जल प्रबंधन द्वारा नहरों और नलकूपों का निर्माण करके इस समस्या का समाधान हो सकता है।
iii. मिट्टी अपरदन (Soil Erosion) : भारत में बड़े पैमाने पर मैदानी भागों में सतही और पर्वतीय और पठारी भागों में अवनालिका अपरदन से मिट्टी का ऊपरी उपजाऊ तत्त्व बहकर अन्यत्र चला जाता है और पथरीली अनुपजाऊ भूमि सतह पर आ जाती है।
खेतों के किनारे मेढ़ बनाना और वृक्षारोपण तथा पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा खेती करके इसका समाधान हो सकता है।
iv. जल-जमाव (Water logging) : निकास (outlet) के अभाव में कृषि भूमि का एक बहुत बड़ा भाग जल-जमाव, बाष्पीकरण, लवणता और मृदा क्षारता के कारण बंजर हो चुका है। जल-निकास का प्रबंध करके इसका समाधान किया जा सकता है।
v. कीटनाशक रसायनों का अत्यधिक प्रयोग (Over-use of pesticides) : इससे मृदा परिच्छेदिका में जहरीले तत्त्वों का सांद्रण हो गया है और भूमि में पुनः उर्वरकता पाने की प्राकृतिक प्रक्रिया अवरुद्ध हो गई है। जैविक खाद का प्रयोग इसका समाधान है।
कृषि तथा बंजर भूमि की अधिकता, भूमि पर आधिपत्य में असमानता, छोटे खेत और विखंड़ित जोत, वित्तीय संस्थाओं की बाध्यताएँ एवं ऋणग्रस्तता, वाणिज्यीकरण का अभाव और अधिसंरचना की कमी अन्य समस्याएँ हैं।