साधारणतया नगरीय जीवन को सुख और सुविधा संपन्न तथा रोजगार के अवसर के उपयुक्त माना जाता है।
इसके विपरीत गाँवों में सुविधाओं और रोजगार के अवसर की कमी रहती है। इस कारण अधिकाधिक संख्या में लोगों का गाँवों से नगरों की ओर प्रवास होता है।
अत्यधिक और अनियंत्रित ग्रामीण-नगरीय प्रवास के कारण नगरीय सेवाओं और सुविधाओं पर अत्यधिक बोझ पड़ता है।
जिसके कारण नगर के भीतरी भाग में भूमि की कीमत बढ़ जाती है और गाँवों से आये हुए या कम आय वाले लोग जहाँ-तहाँ झुग्गी-झोपड़ियों और गंदी-बस्तियों का निर्माण करते हैं।
ये गंदी या मलीन बस्तियाँ समस्याओं के महाजाल में फँसी रहती हैं।
भारत के जनगणना विभाग के अनुसार भारत के 607 नगरों में झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं, जिनमें 4 करोड़ लोग या कुल नगरीय जनसंख्या का 23.6% रहती है।
यह देश की कुल जनसंख्या का 4% है। महाराष्ट्र की 6% और मुम्बई की 49% जनसंख्या झुग्गियों में रहती है, जहाँ धारावी एशिया की विशालतम गंदी बस्ती है।
गंदी बस्तियों के अन्तर्गत झुग्गी और झोपड़पट्टी के अतिरिक्त नगर के पुराने घने आबाद क्षेत्र तथा अनियोजित नये बसे क्षेत्र आते हैं।
भारत की गंदी बस्तियाँ न्यूनतम वांछित आवासीय क्षेत्र होते हैं, जहाँ जीर्ण-शीर्ण मकान, स्वास्थ्य की निम्नतम सुविधाएँ, खुली हवा, पेयजल, प्रकाश तथा शौच सुविधाओं जैसी आधारभूत सुविधाओं का अभाव पाया जाता है।
यह क्षेत्र बहुत ही भीड़-भाड़, पतली सकरी गलियों और खुले नालों वाला होता है। यहाँ के लोग कम वेतन वाले असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, अतः ये अल्प पोषित होते हैं और बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं।
ये अपने बच्चों के लिए उचित शिक्षा का खर्च वहन नहीं कर सकते। गरीबी के कारण ये नशीली दवाओं, शराब, अपराध, गुंडागर्दी, कुरीति आदि का शिकार हो जाते हैं।