इस लोक काल की ओर कला प्रेमियों एवं पारखियों का ध्यान उस समय आकृष्ट हुआ, जब 1942 ई. में लंदन की आर्ट गैलरी में मधुबनी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगाई गई।
मधुबनी चित्रकला पूर्णतया एक महिला चित्रकला शैली है। वे इस चित्रकला को पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में छोड़ती गई।
इस प्रकार, घर की दीवारों तथा आंगन के फर्श से कपड़ों और कागज पर इसका स्थानांतरण होता गया। अन्य लोक कलाओं की भांति मधुबनी चित्रकला भी विभिन्न पर्व-त्यौहारों, विवाह, पारिवारिक अनुष्ठानों के साथ जुड़ी है।
मधुबनी चित्रकला के दो रूप हैं- भित्ति चित्र एवं अरिपन। भित्ति चित्रों में देवी-देवताओं, राधा-कृष्ण की लीला, राम-सीता के कथा के चित्रों को प्रमुखता से दर्शाया गया है। विवाह के अवसर पर घर के बाहर और भीतर की दीवारों पर रति और कामदेव के चित्र तथा पशु-पक्षी के चित्रों को प्रतीक के रूप में चित्रित किया जाता है।
अरिपन चित्रों में आंगन या चौखट के सामने जमीन पर बनाया जाने वाला चित्र है। इन्हें बनाने में पीसे हुये चावल को पानी और रंग में मिलाया जाता है। अरिपन चित्रों के अंतर्गत मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़, फूल, फल, स्वास्तिक, दीप आदि के चित्रों को उकेरा जाता है।
मधुबनी शैली के चित्रों में चित्रित वस्तुओं का मात्र सांकेतिक स्वरूप दिया जाता है पहले के चित्र मुख्यतः दीवारों एवं फर्शों पर ही बनाये जाते थे। मगर कुछ वर्षों से कपड़े और कागज पर भी चित्रांकन की प्रवृत्ति काफी बढ़ी है। चित्रांकन की सामग्री के नाम पर बांस की कूची और विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रंग होते हैं। ज्यादातर रंग वनस्पति से प्राप्त किये जाते हैं। ।
इस चित्रकला के प्रमुख कलाकारों में सिया देवी, कौशल्या देवी, शशिकला देवी, गंगा देवी आदि प्रमुख है।