प्राचीन काल में विद्यार्थी गुरुकुल में कैसे शिक्षा ग्रहण करते थे , और अपने ज्ञान के द्वारा समाज को कैसे सही रास्ता दिखाते थे । धीरे-धीरे यह ज्ञान ब्राह्मणों एवं मंदिरों के प्रांगण तक सीमित हो गया । ज्ञान पर धर्म एवं कर्म पर अंधविश्वासों का प्रभाव बढ़ गया ऐसी परिस्थिति में नालंदा, विक्रमशिला , एवं उदंतपुरी (बिहारशरीफ ) शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हुई । इनमें नालंदा महाविहार का विशेष स्थान है ।
नालंदा दक्षिण बिहार में राजगिरी के निकट स्थित है । इसके अवशेष मुख्य भवन के अतिरिक्त बड़गांव - बेगमपुर आदि गांव में दूर-दूर तक बिखरे हुए हैं । नालंदा विश्वविद्यालय के संबंध में जानकारी के मुख्य स्रोत हेनसांग का विवरण एवं इसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं । इत्सिंग ने भी यहां 10 वर्ष बिताए थे। चीनी यात्रियों के विवरण से पता चलता है , कि यहां हजारों की संख्या में शिक्षक और छात्र रहते थे। नालंदा विश्वविद्यालय की आय का मुख्य स्रोत अनुदान में मिले लगभग 200 गांव थे । इसके अतिरिक्त इन्हें कुछ राजकीय अनुदान एवं विदेशी सहायता भी मिलती थी।
नालंदा विश्विद्यालय में अध्ययन के लिए प्रवेश पाना कठिन थे । अध्ययन के लिए देश-विदेश से छात्र आते थे। छात्रों से उनकी विशेषज्ञता के विषय से संबंधित सवाल पूछे जाते थे । जिससे उनके ज्ञान एवं आचरण की परीक्षा हो जाती थी विश्वविद्यालय एवं छात्रावास दोनों में दिनचर्या नियमित एवं व्यवस्थित ढंग से होती थी हेनसांग जब शिक्षा ग्रहण करने आए तो उस समय वहां के अध्यक्ष आचार्य शीलभद्र थे।
विश्वविद्यालय में सुबह से शाम तक शैक्षणिक कार्य चलते रहते थे । संगोष्ठी प्रणाली की तरह छात्र शिक्षकों से प्रश्न पूछते थे । एवं विचार-विमर्श भी करते थे। उस समय लगभग सभी विषयों की शिक्षा वहां दी जाती थी जिनमें ब्राह्मण और बौद्ध धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दार्शनिक एवं व्यवहारिक तथा विज्ञान एवं कला से संबंधित विषय महत्वपूर्ण थे। लेकिन विशेष बल विभिन्न पंथ्यों, वेदो , अथर्ववेद ( विशेष रुप से ) सांख्य , संस्कृत , व्याकरण एवं महायान बौद्ध धर्म पर दिया जाता था शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उपाधि ( डिग्री ) प्रदान की जाती थी।
नालंदा विश्वविद्यालय की एक समृद्ध लाइब्रेरी भी थी । जिसकी इमारत बहू मंजिली थी। नालंदा विश्वविद्यालय को गुप्त शासकों हर्षवर्धन एवं पाल शासकों के द्वारा संरक्षण प्राप्त किया गया था । लेकिन 11वीं और 12वीं सदी में संरक्षण के अभाव एवं आर्थिक स्रोतों में कमी के कारण नालंदा विश्वविद्यालय की शैक्षणिक स्थिति में गिरावट देखने को मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि बंगाल विजय के क्रम 1197 से 1203 ईस्वी बख्तियार खिलजी ने नालंदा को नष्ट कर दिया था एवं पूरी संस्था को जला दिया था। लेकिन साक्ष्यों के अभाव एवं अन्य साहित्यिक स्रोतों के आधार पर इस विचारधारा को अमान्य कर दिया गया है ।