सभ्यता के आरंभिक काल में जहाँ जंगल का बाहुल्य था वहाँ के लोगों ने जंगल को काटकर खेती करना प्रारंभ किया।
आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में वन्य समाज के लोगों में झूम खेती या स्थानान्तरी खेती प्रचलित है।
इस प्रकार की खेती में वर्षा से पहले जंगल को काटकर तथा झाड़ियों एवं छोटे पेड़ों को जलाकर खेती के लायक तैयार कर लिया जाता था।
जले हुए राख पर बरसात के प्रारंभ में खुरपी या कुदाल की मदद से उसमें बीज डाल दिया जाता था।
वर्षा होने पर बीज से पौधे निकल आते थे। इस भूमि पर दो-तीन साल खेती करने के बाद जब उसकी उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती थी तब दूसरी जगह इसी प्रक्रिया द्वारा खेत तैयार कर लिया जाता था।
तब तक छोड़े गये स्थान में पौधे उग आते थे और वृक्ष लहराने लगते थे।
इससे वननाशन नहीं होता था। इस प्रकार की खेती में न्यूनतम श्रम तथा पूँजी का विनियोग होता था।