प्रस्तुत निबंध प्रगीत और समाज में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि प्रगीत कविता की रचना को प्रभावित करती है। प्रगीत शुद्ध रूप में व्यक्तिक और आत्मपरक नहीं है। इसी संदर्भ में उन्होंने कला कला के लिए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
वस्तुत: 'कला कला के लिए' सिद्धांत का अर्थ है कि कला लोगों में कलात्मकता का भाव उत्पन्न करने के लिए है। इसके द्वारा रस एवं माधुर्य की अनुभूति होती है, इसलिए प्रगीत मुक्तिकों (लिरिक्स) की रचना का प्रचलन बढ़ा है। इसके लिए यह भी तर्क दिया जाता है कि अब लंबी कविताओं को पढ़ने तथा सुनने की फुरसत किसी के पास नहीं है। ऐसी कविताएँ जिसमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता है, उबाऊ होती है। विशुद्ध काव्य की सामग्रियाँ ही कविता का आनंद दे सकती है। यह केवल प्रगीत मुक्तकों से ही संभव है।
यूरोप में व्यक्तिवाद का प्रचलन बढ़ने पर साहित्य में सामाजिकता का तिरस्कार होता चन्द्रा गया। व्यक्ति प्रधान मुक्तकों की अपनी दृष्टि थी। उसमें या तो समाज नहीं था या समाज के प्रति विद्रोह था। ऐसी ही कविताओं को ए०सी० ब्रेडले जैसे आलोचकों ने आर्ट फार आर्ट सेक कहा इसी का अनुवाद है कला कला के लिए।
कला का सर्जन जब केवल कला की सुन्दरता के लिए किया जाता है। यह कला अपनी सुन्दरता के कारण अमर रहती है। इस सिद्धान्त में नैतिकता के प्रश्न नहीं उठते। छोटे-छोटे प्रगीत मुक्तक 'कला-कला के लिए' सिद्धान्त के अन्तर्गत परिगणित होते हैं। लम्बी कविताएँ इसक अन्तर्गत नहीं आती। एकांकी में एक प्रश्न को उठाया जाता है, जबकि नाटक में अनेक प्रश्न और राष्ट्रीय जीवन का चित्रण संवाद की शैली में ही हो जाता है।