लिखना एक तरह की बातचीत है, लिखते वक्त हम किसी से संवाद कर रहे होते हैं प्रायः वह व्यक्ति हमारे सामने नहीं होता। बहुत-सी बातें हम किसी सूचना, विचार या याद को सुरक्षित रखने के लिये लिखते हैं।
बच्चों को लेखन का परिचय बातचीत के रूप में देना चाहिए। स्कूल में दाखिला लेने तक बच्चे कई तरह के लोगों से कई तरह के विषयों पर बात करने का सामर्थ्य हासिल कर चुके होते हैं।
उनमें ‘श्रोता बुद्धि' (यानी किससे क्या बात करनी है, कैसी करती है ?) का बीज चुका होता है।
यह बुद्धि लिखना सीखने के लिए बहुत उपयोगी है पर इसका प्रयोग बच्चों को अब दूर बैठे ‘श्रोता’ या पाठक के लिए करना होगा। कुछ किस्म के श्रोता जैसे अध्यापक या दूसरे बच्चे या स्वयं पास में उपस्थित भी हो सकते हैं।
यह अध्यापक पर निर्भर है कि बच्चे लिखने को संबोधन या किसी से कुछ कहने की तरह ले पाते हैं या नहीं। बातचीत हमें किसी श्रोता के सामने चीजों को व्यवस्थित करके सुनाने का मौका देती है।इसी कारण वह लिखना सिखाने के लिये इतनी किसी उपयोगी है।
किसी भी भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए कागज पर जटिल आकृतियाँ बनानी होती है और अक्षरों की छोटी-छोटी आकृतियाँ बारीक भेद देख पाना और उन्हें याद रखना जरूरी है।
लिखने के लिए यह भी जरूरी है कि अमूर्त प्रतीकों के जरिए विचार और भाव व्यक्त करना आता हो । वर्णमाला के अक्षर अमूर्त प्रतीत होते हैं ।
वे अमूर्त इसलिए हैं कि उनकी आकृति और उनसे जुड़ी ध्वनियों के बीच कोई समरूपता नहीं है।
जो बच्चा हिन्दी लिखना सीखना चाहता है उसे 'अ' को 'अ' रूप में स्वीकार करना होगा और उसका उपयोग उचित जगह पर करना सीखना होगा । उसे इस तरह के कई प्रतीकों का आदी बनना पड़ेगा। अमूर्त प्रतीकों के जरिए अपनी बात कहना ही लिखने का कौशल है । इस प्रकार बच्चे लिखने समय बोल-बोलकर लिखते हैं जिससे बच्चों में लेखन कौशल और संवाद करने की क्षमता का विकास होता है।
अतः हम कह सकते हैं कि लिखना एक तरह की बातचीत ही है ।