तुलसी दास्य भाव के भक्त हैं। दास्य भाव में भक्त अपने को दास तथा भगवान को स्वामी मानता है। स्वामी की कृपा पाने के लिए एक तो वह सेवा करके विश्वास अर्जित करता है, दूसरे अपनी दीनता का वर्णन करके स्वामी के मन में अपने लिए करुणा उत्पन्न करने की चेष्टा करता है। पठित दोनों पदों में दास्य भाव की भक्ति है। तुलसी दास हैं और श्री राम तथा सीता उनके स्वामी स्वामिनी। अपनी भक्ति निवेदित करने के क्रम में वे तीन कार्य करते हैं।
प्रथम अपने को दीन, हीन मलिन तथा पापी कहकर उनसे उद्धार करने की प्रार्थना करते है। दूसरे वे कलियुग की पीड़ा से त्रस्त हैं। इस क्रम में उन्होंने सत्संग के बल पर श्री राम का महत्त्व जाना है और अनुभव किया है कि श्री राम ही सही आराध्य हैं। अत: वे उनके शरणागत हो गये हैं।
तृतीय उन्होंने प्रभु श्री राम को रिझाने के लिए उनका गुणगान किया है, कृपा वारिधि गरीब निवाज आदि कहकर। साथ ही अपने को उनका दास कहकर सीता माता को अपना परिचय दिया है। अतः वे अपने आराध्य के दास हैं, गुण गाने वाले हैं और दीन-हीन भिखारी तथा भूखा बनकर उनसे भक्ति रूपी अमृत तुल्य अनाज की याचना करते हैं ताकि उनकी भूख मिटे।