ऊर्जा के स्रोत के बारे में व्याख्या करें। Urja Ke Strot Ke Bare Mein Vyakhya Karen.
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ऊर्जा के स्रोत के बारे में व्याख्या करें। Urja Ke Strot Ke Bare Mein Vyakhya Karen.

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विश्व में प्रतिदिन अरबों-खरबों मैगाजूल ऊर्जा का प्रयोग होता होगा जो कि कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, जल, पवनों, ज्वार भाटा, समुद्री तरंगों, सूर्य, पृथ्वी के भूताप, बायोमास (लकड़ी, गोबर, कृषीय अवशेष), परमाणु शक्ति जैसे विभिन्न प्रकार के स्रोतों से प्राप्त की जाती रही है। यह भी एक तथ्य है कि विकासशील देशों में कुल ऊर्जा के उपयोग का दो-तिहाई (66%) भाग केवल लकड़ी, कृषीय अवशेष, गोबर व पोषण के रूप में प्राप्त की जा रही रासायनिक ऊर्जा ही से प्राप्त होती है। विश्व में भी ये स्रोत कुल ऊर्जा का ( 15-20%) ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं। सन् 1880 तक विश्वभर में कुल ऊर्जा का ( 50% ) भाग इन स्रोतों से प्राप्त होता था, सन् 1960 तक यह अनुपात 20 रह गया और अब 15% के करीब है। ऐसे स्रोतों से प्राप्त की जा रही ऊर्जा का सही अनुमान लगाना भी असम्भव है। इसका मापना काफी असम्भव है। तभी तो इस अध्याय में केवल ऐसे ऊर्जा के स्रोतों से प्राप्त की जा रही ऊर्जा का विवरण दिया जा रहा है जिसके बारे में विश्व स्तर के आँकड़े उपलब्ध हैं।

विश्व में ऊर्जा की मांग को बढ़ती जनसंख्या और औद्योगीकरण के साथ अक्सर जोड़ा जाता है। 1950-80 के तीस वर्षों में जनसंख्या की सामान्य वृद्धि दर उच्चतम ( 2% प्रति वर्ष) पहुँच गयी थी, पर इस दौरान ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि 3.5% प्रति वर्ष की दर से हुई। 1950 से पहले जब जनसंख्या वृद्धि दर 2% प्रति वर्ष से कम थी, तो भी ऊर्जा उत्पादन की वृद्धि दर 2.6% थी। (1860-1950 ) । इसका अर्थ यह भी हुआ कि ऊर्जा की माँग सदैव उच्च रही है। उदाहरणस्वरूप, 1850-1990 के दौरान विश्व में ऊर्जा की माँग 20 गुना बढ़ गयीं। केवल पिछले चार दशकों में (1950-90) विश्व में ऊर्जा प्रयोग चार गुना बढ़ गया है। आज विकासशील देशों में ऊर्जा की मांग तीव्रता से बढ़ रही है, क्योंकि उनका औद्योगीकरण और उनके कृषि क्षेत्र का मशीनीकरण हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि शीघ्र ही विकासशील देश सबसे अधिक ऊर्जा की माँग जनित करने वाले क्षेत्र बन जायेंगे।

विकासशील देशों की मुख्य समस्या यह है कि जिन ऊर्जा स्रोतों का वे प्रयोग करते हैं उनसे प्रदूषण बहुत अधिक फैलता है। इन देशों को ऐसी तकनीकी का विकास करना पड़ेगा जिससे इन ऊर्जा स्रोतों से प्रदूषण स्तर को कम किया जा सके। या फिर इन्हें गोबर, लकड़ी व कृषीय अवशेष के अतिरिक्त चूल्हे, चौके के लिये किसी ऐसे ऊर्जा स्रोतों का प्रयोग करना चाहिये जिससे धुआँ बिल्कुल न निकले । उदाहरणस्वरूप, प्राकृतिक गैस खनिज तेल से कम और तेल कोयले से कम प्रदूषण फैलाता है। प्राकृतिक गैस को जलाने से जो कार्बनडाई आक्साइड निकलती है यह कोयले के मुकाबले आधी और खनिज तेल के मुकाबले दो-तिहाई होती है। इसी प्रकार जब प्राकृतिक गैस का बिजली उत्पादन के लिये प्रयोग करते हैं, तो भी कोयले के मुकाबले आधी कार्बन डाईआक्साइड जनित होती है।

सारे विश्व में ऊर्जा के संसाधन एक समान वितरित भी तो नहीं हैं। जहाँ इनकी खपत अधिक है, तो वहाँ इनकी कमी पायी जाती है। विकसित देशों में जहाँ विश्व की केवल 23% जनसंख्या वास करती है, वे कुछ ऊर्जा उपभोक्ता का 83% उपभोग करते हैं और विकासशील देश जहाँ विश्व की 77% जनसंख्या वास करती है वे केवल 17% ऊर्जा का उपभोग करते हैं। तभी तो दोनों खण्डों के विकास स्तर में इतना अन्तर पाया जाता है ।

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